सुदूर पूर्व देश के एक राजा ने शौक-शौक में पूंजीवाद नाम का एक तोता पाल लिया। राजा का परिवार न था सो वह तोता उन्हें प्राणों से प्रिय था। राज्य के शेखू राम सरीखे किसानोंं को तो इतने वक़्त की रोटी भी नसीब न थी जितने वक़्त की तोता राजदरबारियों की हाजिरी खा जाता था। शाही पालतू की सुविधा हेतु राजमहल में विशेष इन्तज़ाम करने के अतिरिक्त राज्यभर में फरमान जारी करवा दिए गये कि जहाँ-जहाँ महाराज के तोते की शाही उड़ान की परछाई पड़े, वो ज़मीन शाही पालतू की हो जायेगी।
फरमान जारी होते ही किसानोंं ने असन्तोष व्यक्त कर फरमान वापिस लेने की मांग की। हज़ारों किसानोंं ने एकजुट हो विरोध दर्ज कराया। बौखलाए राजा ने आनन-फानन मन्त्री-मन्डल की बैठक बुलायी और रातोंरात आदेश पारित कर दिया गया कि आंदोलन स्थल के सारे संपर्क साधनों के तार काट दिए जाएं। फर्ज़ी खबर व अफवाहें फैलाने वालों ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज की कि उनको तो कभी ऐसी तत्काल प्रतिक्रिया से नहीं नवाज़ा गया ना ही कभी ऐसा विशेष बर्ताव किया गया जैसा किसानों के समर्थकों को दिया गया। अपराधी भी पीछे क्यों हटते? ईर्ष्यालु नज़रें अखबार पर डालते हुए बोले-‘हमारे सम्मान को ठेस पहुँची है। कभी हम पर तो इतने डंडे नहीं चटकाए गये।’


कुछ बुद्धिजीवियों ने किसानों की मांग इस आधार पर खारिज कर दी कि वे अपना भला नहीं देख पा रहे हैं। नवजात शिशु और असहमत व्यक्ति को प्रायः ही अपने भले-बुरे की समझ नहीं होती है। अंतर बस इतना है कि शिशुओं की व्याकुलता सहर्ष सरल और मासूम स्वभाव की होती है, असहमत जनों की घोर उपद्रवी और देशद्रोही। सौ बात की एक बात, महाराज पर बहुत दबाव बन गया था। महीनों टाल-मटोल के बाद उन्होंने बातचीत की पेशकश कर ही दी। यह अपने आप में बड़ी बात थी। यह अब जनमत को स्वीकार्य तथ्य है कि संसार में सबसे ऊँचा एवेरेस्ट का शिखर नहीं, गद्दीधारियों का अहं है। और फिर जब गद्दीयां बहुमत में बटोर ली जाएं तो फिर तो ऊँचाई के क्या कहने।


खैर, दर्जन भर बातचीत के दौरों में राजा ने यह प्रस्ताव रखा कि वे डेढ़ साल तक अपने पालतू तोते को पिंजड़े में रखेंगे, उसके उपरान्त किसान अपनी भलाई का जिम्मा राजा और उनके तोते पर छोड़ दें।
ज़ाहिर है, किसानोंं ने प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया और विरोध प्रदर्शन जारी रहा।
अब तक महाराज भी रोज़-रोज़ के तमाशे से तंग आ गये थे। बेला-कुबेला ही कोई न कोई अपनी मांग लिए मुंह उठाये चला आता था। मंदिर-मूर्तियों जैसे अति-महत्वपूर्ण राजकार्यों में तो विघ्न पड़ता ही था, वे अपने पालतू तोते को समय नहीं दे पा रहे थे, सो अलग। राजा की इस चिंता निवारण हेतु एक दिन एक बुद्धिमान मंत्री ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिया कि- ज़रुरत से ज़्यादा आज़ादी प्रजा को उन्मादी कर देती है। यह एक बीमारी है, एक नशा। इसी नशे में चूर प्रजा लोकतन्त्र की मांग कर देती है। अब आप चन्दे का इतना बड़ा हिस्सा पी.आर. एजेन्सियों को भोग लगा दें परंतु लोकतन्त्र का प्रसाद ना बांटें तो कहा जाएगा कि महाराज गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करते हैं। सो लोकतन्त्र नामक औषधि सीमित मात्रा में उपलब्ध कराई जाए। लोकतन्त्र का अत्यधिक सेवन करने से अनेक साइड-इफैक्ट जैसे अधिकारों की माँग, विरोध, स्पष्टीकरण, जवाबदेही, ज़िम्मेदारी, लोककल्याण और लंबे अंतराल में जागरूकता जैसी गंभीर बीमारी की चपेट में आने का भी खतरा रहता है।


सियासतदानों की बुद्धिमत्ता पर शक करना बेमानी है- इनका सटीक हिसाब रखने में कोई सानी नहीं है। उदाहरण के लिए डॉक्टरी की किताबों में होता होगा ‘प्रीवेन्शन इस बैटर दैन क्योर’, पर सिर्फ इन्हें पता है कि राजनीति शास्त्र में तो मुआवज़ा ही सस्ता पड़ता है। बस फिर क्या था – मंत्री के साले को ठेका दे थोक में लोकतन्त्र की खामियाँ गिनाते पर्चे छपवा ‘जनहित’ में जारी करवा दिए गये। राजा के राज्य में बच्चे-बच्चे को पता है कि लोकतन्त्र का कितना डोज़ सबकी ‘भलाई’ के लिए उपयुक्त है।

क्लाईमैक्स लेकिन कहानी में तब आ जाता है जब किसीने इसकी उम्मीद भी ना की थी। नहीं, मज़ाक कर रहे हैं। दि ग्रेट इंडियन पोलिटिकल थियेटर में चलित सारे शोज़ की कहानियों में मोड़ और क्लाइमेक्स चुनाव/उपचुनावों के बाद ही आते हैं। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है और पेट्रोल की जली जनता सरकारें फूंक देती है। माना जाता है उपचुनाव सत्ता-युद्ध की थ्रिल्लर का टीज़र होते हैं। छत के एक कोने में सीलन का धब्बा जमा नहीं, कि पूरा कमरा ही पोत दिया जाता है। महाराज ने मौसम का अनुमान लगाते हुए एक शुभ मुहूर्त (प्रकाश पर्व) पर तोते को पिंजड़े में वापिस डलवा लिया। पर हुकूमतों की अदा-नाज़ी में कोई सानी नहीं है। माफीनामा जारी तो हुआ, पर वो माफ़ी कम उलाहना ज़्यादा लगता है,”महाराज ने किसानों की भलाई के लिए ही इन्तज़ाम कराये थे। हमें अफ़सोस है कि हम जनकल्याण के बेसिक्स जनता को नहीं समझा पाए। हम तोते को पिंजड़े में डाल तो रहे हैं पर गौरतलब है कि आपने अपनी जेब खुद फाड़ी है।”
खैर हमारी और आपकी अहद-ए-हयात की एक-एक सांस की रियायत सरकारी गद्दी की ही बपौती है। माफीनामा मन्ज़ूर है।

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मारिषा सिंह

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