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घूरा महोत्सव

दीपावली आने को है, माहौल में गुलाबी ठंडक घुलने लगी है, क्षितिज पर सुबह-शाम धुंध सी दिखाई देने लगी है। इस खूबसूरती के इतर शहर की सड़कों पर भी एक जाना पहचाना नज़ारा दिखने लगा है, हमारे शहर की सड़कें सिकुड़ने लगी हैं, सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर बड़े होते जा रहे हैं इन ढेरों पर ‘आत्मनिर्भर’ पशुओं के डेरे बन गये हैं, जहाँ गौमाता अपने पुत्रों को निहारती हुईं पॉलिथीन और प्लास्टिक चबा रही हैं। शहर में हर घर में दिवाली की सफाई होने लगी है, अलमारियों में बिछे पुराने अखबार बदले जाने लगे हैं। जिन घरों में रोज एक थैली भर के कचरा निकलता था वहां से कई बोरों में भरकर कचरा निकलने लगा है। दुमंजिला, तिमंजिला और बहुमंजिला इमारतों से कचरे की थैलियां निशाना बांध कर घूरों (कचरा फेंकने की जगह) की तरफ उछाली जा रही हैं। हमारे यहां घूरे पर भी लक्ष्मी का वास माना जाता है, दीवाली के दिन एक दिया घूरे पर भी रखा जाता है, शायद इसलिए लक्ष्मी को खुश करने के लिए पूरा शहर इस कूड़ा महायज्ञ में अपनी आहुतियां दे रहा है, यज्ञ है तो अग्नि भी होगी, यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करने वाले को अग्निहोत्र कहते हैं, इस यज्ञ के अग्निहोत्र भी बहुत रहस्यमय होते हैं, माना जाता है कि घूरों पर अग्नि स्वतः ही प्रकट हो जाती है, क्योंकि जब भी किसी से पूछा जाता है कि – “कूड़े में आग किसने लगाई?” उसका जवाब “हमें नहीं पता!” होता है। इन्हीं रहस्यमयी अग्निहोत्रों के पौरुष से पूरे शहर में चतुर्दिक घूरों में अग्नि प्रकट हो जाती है। पॉलीथिन, रबर, कागज और जलती हुई प्लास्टिक की सुगंध लिए धुएं का एक बादल पूरे शहर पर छा जाता है। ये अग्नि विजयदशमी से लेकर गोवर्धन पूजा तक निरन्तर प्रज्वलित रहती है, दीपोत्सव की रात पटाखों के धुएं से घूरे के धुँए का संगम होता है। इस अनोखे मिलन से भवसागर में भटकते अनेक वृद्ध और रोगी जन मुक्ति पथ पर प्रयाण करते हैं। पशु पक्षी इस कालखंड में एकांत वास में रहते हैं, जिनमें से कई इस भौतिक संसार से विरक्त हो पुनः कभी हमें दिखाई नहीं देते।

ये पूरा कालखंड अपने आप में एक असाधारण आध्यात्मिक अनुभव होता है, किंतु हर यज्ञ की तरह इस यज्ञ में भी बाधा डालने के लिए अनेक दुर्बुद्धि वाले लोग आ ही जाते हैं, वो विज्ञान का सहारा लेकर कहते हैं कि पॉलीथीन और कचरे को जलाने से पर्यावरण को हानि होती है, वे तो यहाँ तक कहते हैं कि पटाखों का धुआं कैंसर और दमा जैसे अनेक रोगों को जन्म देता है। अब इन्हें कौन समझाए कि ये पवित्र धुंआ ‘रोगों को जन्म’ नहीं बल्कि ‘रोगियों को मुक्ति’ देता है। जीव जंतुओं की जिन प्रजातियों को इस धरती से जाने की जल्दी है, उनकी विलुप्ति को ये धुंआ एक गति प्रदान करता है..चलिए छोड़िये, इन कुपढ़ों कूड़ा जलते देखने के अतुलनीय आनंद के बारे में क्या ही समझाया जाए? इस यज्ञ की निरंतरता को बनाये रखने के लिए दैवीय अनुकंपा भी हमारे शहर पर सदैव बनी रहती है, हर साल इस कालखण्ड में स्वतः ही सफाई कर्मचारियों के वेतन की व्यवस्था भंग हो जाती है, अतः उनको इस दौरान हड़ताल पर जाना पड़ता है, हड़ताल और त्यौहार के इस सुयोग से सड़कों पर घूरे बरसाती घास की तरह दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ते हैं। ये हड़ताल सफाई कर्मचारियों को भी अपने परिवार के साथ समय बिताने का अवसर देती है, भले ही उनके पास भोजन के लिए भी पैसे न हों, लेकिन समय खूब होता है और इस समय का इस्तेमाल वे तनाव और अवसाद का अनुभव करने के लिए करते हैं। यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद बकाया छः महीने के वेतन में से दो महीने का वेतन सफाई कर्मचारियों को प्राप्त हो जाता है, और उन्हें काम पर दोबारा आना पड़ता है।

शहर के सभी नागरिक इस पूरे कालखंड में आध्यात्मिकता के चरम पर होते हैं, वे भौतिक समस्याओं से निरपेक्ष होकर टीवी का रिमोट या मोबाइल को थामे निरन्तर डंकापति की साधना में लीन रहते हैं। कूड़े का ढेर यदि उनके घरों में भी घुसने लगे तब भी वे बड़े ही कलात्मक ढंग से उससे बचकर निकल जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे डंकापति सभी जरूरी प्रश्नों से बचकर निकलते हैं। शहर में डंकापति के चेलों की सरकार है और कूड़े को हटाना उनका ही दायित्व है, लेकिन मजाल है कि कूड़ा जलाने की परंपरा, जलाने वालों की प्रतिष्ठा और जनता के अनुशासन में लेशमात्र की कमी आई हो। हमारी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है युग युगान्तर तक ये कूड़े के ढेर निरंतर सुलगते रहें। इन ढेरों से उठने वाला सुगन्धित धुंआ सदैव हमारी सांसों में समाता रहे, जनता डंकापति की भक्ति में सदैव लीन रहे, इससे अधिक इस नश्वर मानव शरीर की ईश्वर से क्या अपेक्षा हो सकती है!

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