नए कृषि कानून: कौन सही – सरकार या किसान?
सरकार नए कृषि कानूनों को किसानों और देश के हित में मानने के बावजूद हर तरह के बदलाव को तैयार है। पर किसान इनको काले कानून मान कर रद्द करवाने पर अड़े हैं। कौन सही है?

कृषि कानूनों को समझना और उनके हम पर पड़ने वाले असर बारे सोचना क्यों जरूरी है

कुछ लोग मानते हैं कि नए कृषि कानूनों से केवल किसान, वो भी केवल पंजाब के किसान, परेशान हैं। लेकिन जब अच्छे-बुरे मानसून तक से ही पूरी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ जाता है, खेती खराब तो सब कामधंधे मंदे, तो ऐसे में जिसे सरकार भी बहुत बड़ा बदलाव कह रही है, उस का तो पूरी अर्थव्यवस्था एवं उपभोक्ता पर असर पड़ना लाज़मी है। इस लिए हम सब नागरिकों का इन कानूनों को समझना और हम पर पड़ने वाले असर बारे सोचना जरूरी है।

जब कंपनियां खेती करेंगी तो क्या होगा

सवाल केवल एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य का नहीं है। करार खेती कानून की धारा 2 (डी), धारा 2 (जी) (ii), धारा 8 (ख) और सरकार द्वारा सदन में रखे गए बिल के पृष्ठ 11 से साफ है कि सौदा केवल खरीद का नहीं होगा बल्कि अब कम्पनियाँ खुद खेती कर सकेंगी। छोटे-छोटे खेतों को मिला कर 50-100 किल्ले के खेत बना सकेंगी।

जब कम्पनियाँ खेती करेंगी तो मशीनों का प्रयोग बढ़ जाएगा और श्रम का कम हो जाएगा। नतीजा, खेती में रोजगार कम होगा। कुछ किसान मजदूर बनेंगे पर ज्यादातर बेरोजगार हो जायेंगे। अड़ोसी पड़ोसियों के 5-7 किल्ले ले कर गुजारा करने वाला बेरोजगार हो जाएगा। शहर में बेरोजगारों/छोटे दुकानदारों की लाइन और लम्बी हो जायेगी।

ये खतरा, पूरे देश के छोटे-बड़े सब किसानों के लिए है। वैसे भी नए कृषि कानूनों में किसान की परिभाषा में केवल फसल उगाने वाले ही नहीं बल्कि भेड़-बकरी पालक, मछुआरे, दूध उत्पादक, ऐसे किसान जो उन फसलों की खेती करते हैं जिन का एमएसपी ही घोषित नहीं होता, और भूमिहीन किसान, सब शामिल हैं।

जब कम्पनियाँ खेती करेंगी तो भूमिहीन पशुपालकों का काम भी ठप्प होगा क्योंकि इन का काम खेतों की डोलों से घास ला कर चलता है। अब कृषि-भूमि हदबंदी कानून का रहा सहा प्रभाव भी खत्म हो जाएगा और भारत के खेत भी अमरीका जैसे विशाल हो जायेंगे। जब खेती में रोज़गार कम हो जाएगा, तो मांग पूरी अर्थव्यवस्था में घट जाएगी, यानी सारे कामधंधे मंद।

हमारे खाने की थाली पर क्या असर पड़ेगा

दूसरे कानून से खाद्य-पदार्थों पर आवश्यक वस्तु अधिनियम की पकड़ ढीली कर दी गई है। इस कानून के तहत सरकार कीमतों और कालाबाजारी पर रोक लगाने के उपाय कर सकती है पर अब अनाज, दालें, तेल, आलू और प्याज़ पर ये कानून आम तौर पर लागू नहीं होगा (जबकि इन्सान के ज़िंदा रहने के लिए भोजन से अधिक आवश्यक और क्या है?)।

जब यह कानून गिने-चुने हालात में लागू भी होगा, तब भी खाद्य-उद्योग या निर्यात आदि में लगी कम्पनियों पर लागू नहीं होगा यानी अब कम्पनियों द्वारा जमाखोरी पर कोई पाबंदी नहीं होगी। किसानों को इसका फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि किसान तो फसल को सीधे खेत से मंडी ले जाता है- उस के पास तो भण्डारण की क्षमता ही नहीं है। इस का फायदा तो बड़ी कम्पनियों को ही होगा। नुकसान आम आदमी, छोटे दुकानदार और व्यापारी को होगा। महंगाई बढेगी।

किसानों के लिए लौट आएगी 70 साल पुरानी स्थिति

तीसरा कानून मंडी बाइपास कानून है। इस से अब एपीएमसी या नियंत्रित मंडी के बाहर, कहीं पर भी, सार्वजनिक निगाह से दूर, परदे की ओट में उपज खरीदी जा सकेगी। यानी, 1950-60 के दशक वाली स्थिति लौट आएगी। एक ओर छोटा किसान होगा और दूसरी और बड़ी-बड़ी कम्पनियां।

किसान को आजादी देने के नाम पर लाए जा रहे इस कानून से असली आजादी तो राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय विशालकाय कम्पनियों को मिलेगी और नुकसान किसान और छोटे व्यापारी / आढतिये का होगा। इसका सबसे अधिक नुकसान तो उपभोक्ता को होगा क्योंकि बड़े व्यापारी और कम्पनियाँ खाद्य-पदार्थो की कालाबाजारी करके इनकी कीमतों में मनमाफिक बढोतरी कर सकेंगे।

नए कानून के चलते एपीएमसी / नियंत्रित मंडी का वही हाल हो जाएगा जो सरकारी स्कूलों और हस्पतालों का हुआ है। ये एकदम से बंद न होकर धीरे धीरे बंद होंगी। जैसे स्कूलों के निजीकरण के बावजूद बच्चों पर ट्यूशन और कोचिंग का बोझ और माँ-बाप पर खर्च का बोझ बढ़ा है। यही हाल अब भोजन खर्च का होगा।

कृषि का कम्पनीकरण हो गया, तो अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में निजीकरण की बाढ़ आ जाएगी। पहले से ही सरकार इस ओर बढ़ रही है, फिर चाहे वह रेलवे हो या सड़क परिवहन हो या बैंक।
अभी तक रिलायंस जैसी कम्पनियों द्वारा बैंकों में निवेश पर 1960 के दशक से लगी हुई रोक जारी है पर अब ये रोक हटाने का प्रस्ताव है। यानी आम जनता की छोटी-छोटी बचत को बैंकों के माध्यम से जमा कर के बड़े उद्योग-घराने अपने उद्योगों में लगा सकेंगे जिस से पैसा डूबने का खतरा बढ़ जाएगा।

खेती में कम्पनियां घुस गई और सरकार ने अपना पल्ला किसान से झाड लिया तो?

खेती में कम्पनियां घुस गई और सरकार ने अपना पल्ला किसान से झाड़ लिया, तो अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र कोई मजदूर, कर्मचारी, छोटा दुकानदार कारीगर सुरक्षित नहीं रहेगा। देश चंद रईसों का बंधक हो जाएगा।

एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य बाबत पूरी दुनिया में किसी न किसी रूप में किसान को सरकार/ समाज का समर्थन/ संरक्षण रहता है। उसे पूरी तरह बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ते। क्योंकि खेती पर मौसम का जैसा प्रभाव पड़ता है वैसा किसी और उद्योग पर नहीं पड़ता।

दूसरा, खेती से भोजन पैदा होता है जो इन्सान की बुनियादी ज़रूरत है। जैसे सरकार न्यूनतम मजदूरी तय करती है या मान्यता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों के वेतनमान तय करती है, इसी तरह एक विभाग फसलों की लागत को ध्यान में रख कर 23 फसलों का न्यूनतम लाभकारी मूल्य तय करता है। पर न्यूनतम लाभकारी मूल्य की घोषणा के साथ यह भी जरूरी है कि ये वास्तव में लागू हो, किसान को मिले भी। अभी तक इस की कोई व्यवस्था नहीं है।

केवल कुछ फ़सलों में, और वो भी कुछ इलाकों में, यह भाव मिलता है।  इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की गारंटी की मांग जायज है।

सरकार अंतिम विकल्प के तौर पर फसल खरीदने को तैयार हो, तो सारा उत्पादन सरकार को खरीदने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। कम्पनियां अपनी जरूरत का माल एमएसपी पर भी खरीदेंगी ही। और बिना सरकारी खरीद के राशन व्यवस्था तो बरबाद हो जायेगी।

सरकार जिन संशोधनों पर तैयार हुई है वो मुद्दे छोटे हैं

जैसे किसान को अदालत में जाने का अधिकार, व्यापारियों का पंजीकरण इत्यादि। बुनियादी नीति में सरकार ने अब तक कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया है।
इसी तरह भले ही ऊपरी तौर पर उच्चतम न्यायालय ने तीनों कृषि कानूनों के लागू होने पर रोक लगा दी है परन्तु आदेश के अगले ही पैरा (14 (ii)) से साफ है कि इस आदेश में ऐसा कुछ नहीं है जो किसानों ने माँगा हो और सरकार ने देने से माना किया हो, पर अब अदालत ने दे दिया हो। यानी किसानों व जनता के हाथ अब तक कुछ नहीं लगा है।

क्यों इन कानूनों को वापिस लिया ही जाना चाहिए

जनतंत्र का अर्थ है जनता द्वारा, जनता के हित में जनता की शासन व्यवस्था। अगर लाखों लोगों के इतने व्यापक शांतिपूर्ण विरोध के बावजूद, सरकार जल्दबाजी में संसद में बिना वोट के पास करवाए गए कानून को भी वापिस नहीं लेती, तो इस का अर्थ है कि देश में तानाशाही आ चुकी है। दाव पर न केवल खेती-किसानी है, न केवल अर्थव्यवस्था और उपभोक्ता हैं बल्कि लोकतंत्र है।

असली ताकत जनता के ही पास है

कई लोग यह सोचते हैं ये तानाशाही सरकार जनता की बिल्कुल नहीं सुनेगी। लेकिन सरकार द्वारा लगातार की जा रही बांटने की कोशिशे, भ्रामक प्रचार, झूठे वायदे दिखाते हैं क्योंकि पूरी जनता का विरोध सहने की क्षमता किसी हिटलर में भी नहीं होती।

अगर पूरी जनता के रोष को सहने की ताब होती तो सरकार इन कानूनों को किसानों के ‘शक्तिकरण और संरक्षण’ का नाम न दे कर सीधे-सीधे कम्पनियों को अधिकार देने का कानून कहती। असली ताकत जनता के पास ही है, बशर्ते वह सचेत और सक्रिय हो। यह सब पढ़ कर आप स्वयं ही तय कर लीजिए कि ये नए कृषि कानून देश और समाज के हित में हैं या नहीं। (लेखक अर्थशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर व जैविक खेती आंदोलन से जुड़े हैं)

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राजेन्द्र चौधरी

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