संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द को जोड़ने के 15 साल के भीतर ही भारत ने समाजवाद की पोटली बंद कर के आर्थिक उदारवाद की अलमारी खोल ली, इस अलमारी को खोले बिना भारतीय अर्थव्यवस्था को जिन्दा रख पाना नामुमकिन था। इसके बाद लाइसेंस राज के दौर में रसातल में जा चुकी अर्थव्यवस्था धीरे धीरे ऊपर आने लगी। उदारवाद के साथ जो 2 और शब्द 1991 के बाद सरकारी नीतियों का महत्वपूर्ण हिस्सा बने, वो थे ‘वैश्वीकरण’ यानी ‘ग्लोबलाइज़ेशन’ और ‘निजीकरण’ यानी ‘प्राइवेटाइजेशन’ इन तीन नीतियों को LPG नीतियों के नाम से जाना जाता है।
वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण को साधारणतः एक दूसरे से जोड़ कर ही देखा जाता है, और इन्हें एक दूसरे का पूरक भी मान लिया जाता है, ऐसा मानना कुछ हद तक सही भी है, लेकिन इस संदर्भ में नीतिगत स्तर पर मौजूद कई बारिकियों और जटिलताओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। एक प्रश्न जिसका जवाब तलाशना हमारे देश के आर्थिक भविष्य के लिए बहुत जरूरी है – “क्या निजीकरण के बिना आर्थिक उदारीकरण संभव है?” इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें निजीकरण और उदारीकरण को समझना होगा।
निजीकरण- यह एक प्रक्रिया है जिसके जरिए एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम का संचालन निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाता है, इस प्रक्रिया के जरिये सरकार अपने संसाधनों की बेहतर पुनर्संरचना का प्रयास करती है। ये प्रक्रिया प्रायः घाटे में चलने वाले और गैरजरूरी सार्वजनिक उपक्रमों के साथ अपनाई जाती है।
उदारीकरण- यह एक आर्थिक नीति है जो राज्य के द्वारा अर्थव्यवस्था में होने वाले हस्तक्षेप को खत्म करने पर जोर देती है। आर्थिक उदारीकरण के लिए यह जरूरी है कि आर्थिक गतिविधियों में सरकार के हस्तक्षेप को कम से कम रखा जाए और सरकार द्वारा व्यापार हितैषी निर्णय लिये जाएं।
उदारीकरण और निजीकरण में जो यह ‘नीति’ और ‘प्रक्रिया’ का अंतर है, वहीं भारत के कई आर्थिक प्रश्नों का उत्तर छिपा हुआ है। प्रक्रिया के लिए अंग्रेजी शब्द है process और process दो प्रकार की होती हैं, spontaneous यानी स्वाभाविक, और non spontaneous यानी अस्वाभाविक। नीति का अंग्रेजी में शाब्दिक अर्थ policy होता है, अमूमन कोई भी आर्थिक प्रक्रिया किसी आर्थिक नीति का प्रतिफल होती है। अतः निजीकरण की प्रक्रिया आर्थिक उदारीकरण की नीति का प्रतिफल है।
समस्या कहाँ आती है?
आर्थिक उदारीकरण निजीकरण के लिए एक अनिवार्य शर्त है, लेकिन निजीकरण कभी भी आर्थिक उदारीकरण के लिए आवश्यक नहीं रहा है। जब सरकारें उदारीकरण के रास्ते पर चलते हुए निजीकरण को भी एक नीति बना लेतीं हैं तो समस्या खड़ी हो जाती है। अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को कई बार ‘कृत्रिम नुकसान’ में धकेल दिया जाता है, ये कह कर मैं सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षमताओं और समस्याओं पर पर्दा डालने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ, मैं बस सरकार द्वारा निजीकरण को एक नीति के तौर पर लागू करने को उदारीकरण और फ्री मार्केट के खिलाफ मानता हूं।
BSNL की हत्या
BSNL को भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता के एक बहुत बड़े उदाहरण के तौर पर दिखाया जाता है। पर क्या इस सवाल पर बात नहीं होनी चाहिए कि क्या BSNL की असफलता और मौजूदा नुकसान सिर्फ व्यपारिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम है या इसके पीछे एक सोची समझी रणनीति है, जिसके कारण एक समय पर सर्वाधिक मुनाफ़ा देने वाली कम्पनी कुछ ही समय में भारी नुकसान में डूब गई। 2016-17 के बीच BSNL का घाटा 17 हज़ार करोड़ से अधिक था, 2019 में ये घाटा 14 हज़ार करोड़ पहुंचा और बीते 4 सालों में ये बढ़कर 32 हज़ार करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है। एक समय BSNL का पूंजीगत व्यय भारतीय रेल से भी अधिक था, इसके अलावा वर्ष 2000 में कम्पनी की स्थापना के बाद 2008 तक BSNL सरकार को निवेश से कई गुना अधिक रिटर्न दे चुका था। BSNL को 8 साल तक लगातार फायदे के बाद वर्ष 2009-10 में पहली बार घाटा उठाना पड़ा। कम्पनी के पूर्व वित्तीय निदेशक SD सिन्हा के अनुसार “BSNL को नुकसान सरकारी उदासीनता के कारण हुआ, उनके अनुसार जब प्राइवेट कंपनियां बिना किसी टेंडर प्रक्रिया के अपने नेटवर्क को बढ़ाने के लिए जरूरी खरीद कर रहीं थी, वहीं BSNL को हर प्रकार की खरीद के लिए एक धीमी टेंडर प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था, सरकार द्वारा बार बार बिना कोई कारण बताए टेंडर खारिज कर दिए जाते थे। इस कारण BSNL उभरते हुए मोबाइल मार्केट में अपने कदम नहीं जमा पाई।” BSNL ने नुकसान के बावजूद भी 2G और 3G स्पेक्ट्रम की नीलामी में हिस्सा लिया और स्पेक्ट्रम हासिल किए। लेकिन 4G स्पेक्ट्रम की नीलामी तक आर्थिक समस्याओं के कारण कंपनी स्पेक्ट्रम नीलामी में शामिल नहीं हो पाई। जिस वजह से वह टेलीकॉम मार्केट में काफी ज्यादा पिछड़ गई है, और अब शायद ही वह दोबारा कभी मुनाफ़ा कमा सके।
वहीं 4G स्पेक्ट्रम मिलने के बाद जिओ और एयरटेल जैसे प्राइवेट ऑपरेटर बिना किसी परेशानी के 4G सर्विस के लिए BSNL के टावर नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं, BSNL के 13 हज़ार से ज़्यादा टॉवरों का इस्तेमाल प्राइवेट कम्पनियां कर रही हैं, जिसमें से जिओ ही अकेले 8 हज़ार से अधिक टावर इस्तेमाल कर रहा है। प्रश्न तो यह भी है कि यदि वर्तमान में BSNL का टावर नेटवर्क मौजूद न होता तो क्या निजी कम्पनियां आज की तरह ही सस्ते दामों पर 4G सर्विस उपलब्ध करा पातीं? BSNL के पास अभी भी 60 हज़ार टावर और 6.5 लाख किलोमीटर का ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क मौजूद है जो कि जिओ के नेटवर्क के मुकाबले दोगुना है, वहीं BSNL के उपभोक्ताओं की संख्या जिओ के मुकाबले आधे से भी कम है, यही कारण है कि सरकार BSNL के निजीकरण की ओर बढ़ रही है, निजीकरण के बाद इतने विशाल टेलीकॉम नेटवर्क को पूरी तरह निजी कम्पनियों या कम्पनी के हाथ में सौंपने की तैयारी है।
BSNL के उदाहरण से हम ये समझ सकते हैं कि जब सरकारें निजीकरण को ही एक नीति के तौर पर अपना लेती हैं तब कैसे एक मुनाफा कमाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी को धीरे धीरे जानबूझकर नुकसान की ओर धकेल दिया जाता है। क्या सरकार द्वारा ऐसा करना तथाकथित ‘फ्री मार्केट’ और ‘प्रतिस्पर्धा’ के सिद्धांतों के विपरीत नहीं है? क्या निजी कम्पनियों के लिए जगह बनाने के लिए जानबूझकर एक सरकारी कम्पनी को नुकसान में धकेलना और करदाताओं के पैसे से बनाये गए पूरे बुनियादी ढांचे को औने पौने दामों में कॉरपोरेट को बेच देना ही आर्थिक उदारीकरण है?
क्या सभी सरकारी कम्पनियां नुकसान में हैं?
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम आज भी लाखों करोड़ का मुनाफा सरकार को दे रहे हैं फार्च्यून इंडिया के वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार ONGC 62 हज़ार करोड़ का मुनाफा, इंडियन ऑयल 42 हज़ार करोड़ का मुनाफा, NTPC 19 हज़ार करोड़ का मुनाफा, भारत पेट्रोलियम 17 हज़ार करोड़ का मुनाफा, कोल इंडिया 13 हज़ार करोड़ का मुनाफा, हिंदुस्तान पेट्रोलियम 12 हज़ार करोड़ का मुनाफा, गेल इंडिया 8 हज़ार करोड़ का मुनाफा, पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन 8 हज़ार करोड़ का मुनाफा, और रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन 7 हज़ार करोड़ का मुनाफ़ा कमा कर दे चुके हैं।
इससे यह तो स्पष्ट है कि सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां मुनाफ़ा भी कमा सकती हैं, ये जरूरी नहीं है कि यदि कम्पनी सरकारी है तो वह हमेशा नुकसान में ही रहेगी। किसी भी अन्य कम्पनी की तरह मुनाफे और नुकसान का गणित सीधे तौर पर कम्पनी के प्रबंधन और नीतिगत फैसलों पर निर्भर करता है न कि उसके प्राइवेट और सरकारी होने में।
दोहरे मापदंड
पूंजीवादी देशों में भी privatization of profit and socialization of loss का सिद्धांत काम करता है, वहां पर भी bail out package और incentives के नाम पर करोड़ो डॉलर की राशि निजी कम्पनियों को बांट दी जाती है। सवाल तो यह भी है कि यदि भारत का कॉरपोरेट सेक्टर सरकारी हस्तक्षेप के इतना ही खिलाफ है तो उसे सस्ते दामों पर सरकारी ज़मीन क्यों चाहिए? क्यों उसे बिजली में सब्सिडी चाहिए? क्यों सरकारी बैंकों से सस्ती दरों पर ऋण चाहिए? क्यों वे लेबर क़ानूनों में ढिलाई की मांग करते हैं? क्यों पर्यावरण संबंधी कानूनों को कमज़ोर करने के लिए लॉबिंग करते हैं? और सबसे बड़ा सवाल सरकारी बैंकों से लिये गए ऋण को न चुकाने की स्थिति में ऋण माफी या राइट ऑफ करने की मांग सरकार से वो क्यों करते हैं?
दरअसल कॉरपोरेट सिर्फ रेगुलेशन के स्तर पर सरकारी हस्तक्षेप के खिलाफ हैं, जब सरकार किसानों से जबरन जमीन अधिग्रहण कर कॉरपोरेट को देती है तो उनको वह coercive नही लगता पर जब यही सरकार कुछ प्रतिशत कॉरपोरेट टैक्स बढ़ा देती है तो पूरी व्यवस्था अचानक से coercive हो जाती है। सरकारी सिस्टम में लालफीताशाही ख़त्म होनी चाहिए, उद्योगों को हर स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, सरकारी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को निश्चित ही खत्म करना चाहिए पर उद्योगों को प्रोत्साहन भारतीय नागरिकों के हितों को ताक पर रख कर नहीं दिया जाना चाहिए। अच्छी भली चलती सरकारी कम्पनियों का भट्टा बैठा कर “government has no business to be in business” कहने वाले लोग पीछे के दरवाजे से इन्हीं कॉरपोरेट से चुनावी चन्दा वसूलते हैं। और चुनावों में इन्ही के हेलीकाप्टरों में उड़ते हैं।
भारत एक वेलफेयर स्टेट (कल्याणकारी राज्य) है जिसका सर्वप्रथम संवैधानिक दायित्व अपने नागरिकों के प्रति है। भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग अभी भी मौजूद है जो फ्री मार्केट के “win-win” सिद्धांत से चलने की स्थिति में नहीं है, इस वर्ग के सामने आज भी अपने दैनिक जीवन को चला पाना भी एक चुनौती से कम नहीं है, इन लोगों से किसी भी प्रकार का मुनाफा वसूलना एक अनैतिक विचार है। हालांकि ये भी एक दीगर बात है कि win-win का ये सिद्धांत हमेशा लागू नहीं होता, ये एक यूटोपियन विचार है जहां हम ‘greed’ यानी लालच को नजरअंदाज कर देते हैं। अर्थिक उदारवाद एक सच्चाई है और समय की जरूरत भी है, लेकिन इसकी आड़ में एक दोहरी आर्थिक व्यवस्था की स्थापना नहीं होनी चाहिए जो, कॉरपोरेट के लिए तो ‘समाजवादी’ हो और गरीबों के लिए ‘पूंजीवादी’। हमें यह समझना होगा कि सभी समस्याओं का हल निजीकरण नहीं है सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफ़ा देने वाले उपक्रमों को बचाना हमारे देश की एक रणनीतिक जरूरत भी है। निजीकरण एक स्वभाविक प्रक्रिया के तौर पर तो स्वीकार्य है पर इसे एक नीति के तौर पर लागू करना निरी मूर्खता होगी। हमें यह समझना होगा कि निजीकरण नीतिगत कुप्रबंधन का समाधान नहीं है। जिस प्रकार बारिश में घर की छत टपकती हैं तो उसकी मरम्मत कराई जाती है न कि पूरे मकान को तोड़ना शुरू कर दिया जाता है। उसी प्रकार यदि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में समस्या हैं तो उन समस्याओं पर काम होना चाहिए न कि सार्वजनिक उपक्रमों को बेचना शुरू कर देना चाहिए।