इंसान का स्वाभाव शुरू से खुराफाती रहा है, इस प्राणी के दिमाग में कभी भी कोई सवाल आ सकता है, और उस सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश में ये पूरी दुनिया बदल सकता है. ऐसे ही एक दुनिया बदलने वाले सवाल पर हम आज बात करेंगे लेकिन उससे पहले ये पंक्तियाँ-
“हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी, आइये मिलकर विचारें ये समस्याएँ सभी”
मैथिलिशरण गुप्त ने ये पंक्तियाँ 1912 में लिखी थी पर इसमें मौजूद 3 सवाल हमेशा से इंसान के दिमाग में रहते थे, अपनी शुरुआत को जानने की इन्ही कोशिशों से विज्ञान के एक बहुत जरुरी सिद्धांत की नींव पड़ी जिसे हम “evolution के सिद्धांत” के नाम से जानते है. ये सिद्धांत इस धरती पर जीवन की शुरुआत और तमाम प्रजातियों के विकास के बारे में बताता है.
सबसे पहले ग्रीक विद्वान अरस्तू ने 350 ई.पू में इस तरफ सोचना शुरू किया, काफी सोचने के बाद वे बोले- “सभी प्राकृतिक चीजें कुछ निश्चित संभावनाओं की अभिव्यक्ति हैं” [1] कुल जमा बात ये- कि किसी भी जीवित चीज़ का होना महज कुछ संभावनाओ का एक साथ आ जाना है. ये बात आज के स्टैंडर्ड के हिसाब से अजीब लग सकती है, पर उस समय के ज्यादातर सिद्धांत इसी तरह के होते थे.
लोग आते गये और कारवां बनता गया-
अरस्तू का भौकाल इतना टाइट था कि उनके बाद बहुत सालों तक किसी ने evolution की तरफ ज्यादा दिमाग लगाने की टेंशन नहीं ली, 17 वीं सदी में जाकर अरस्तू की थ्योरी को नकारा गया, और नये सिरे से खोजबीन शुरू की गई.
इसके बाद एक अंग्रेज आये जिनका नाम था ‘जॉन रे’ इन्होने एक नया सिस्टम बनाया जिसे क्लासिफिकेशन सिस्टम कहते हैं, ये अलग अलग प्रजातियों का लेखा जोखा रखने वाला सिस्टम था.
एक जैसे जीवों को एक साथ रखा गया जैसे – सारे बन्दर एक साथ, सारे कुत्ते एक साथ, सारी बकरियां एक साथ, और सारे इंसान भी एक साथ. जॉन रे एक और इम्पोर्टेंट बात बोल गये – “हर प्रजाति को उन विशेषताओं द्वारा परिभाषित किया जा सकता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी खुद को बनाए रखती हैं” [2] ये कहना क्यों जरुरी था ये आगे समझ आएगा.
जॉन रे के बाद आये कार्लोस लिनिअस इन्होने ज्यादा फोकस किया नामकरण वाले मामले पर, ये कुछ ऐसे नियम बना गये जिसके आधार पर तमाम प्रजातियों के नाम रखे गये, और इसी क्रम में इंसान का नाम हुआ होमो-सेपियंस . ये नामकरण का सिस्टम भी बहुत मजेदार है. इसके बारे में फिर कभी विस्तार से बतियाएँगे.
वो घडी आ गई…
साल था 1859, एक किताब पब्लिश हुई, और इस किताब ने evolution के प्रति दुनिया की सोच हमेशा के लिए बदल दी. ये किताब थी “On the Origin of Species” और इसे लिखा था चार्ल्स डार्विन नाम के एक अंग्रेज ने. इस किताब में वो तमाम बातें हैं जिनपर आज भी evolution के सिद्धांत टिके हुए हैं.
डार्विन की बातें उस समय के लिए बहुत ही क्रन्तिकारी थीं, चर्च से जुड़े लोगों ने डार्विन की सिद्धांतों की बहुत तीखी आलोचना की क्योंकि डार्विन के सिद्धांत इश्वर द्वारा दुनिया बनाये जाने वाली बात के विपरीत थे.
ऐसा क्या बवाल लिख दिए थे भाई?
डार्विन की इस किताब में कुछ बड़ी बातें थीं जो उस टाइम लोगो के सर के उपर से जा रही थीं –
- हर प्रजाति आपस में और दूसरी प्रजातियों के साथ अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है.
- अपने पर्यावरण के हिसाब से ढल जाने वाली प्रजातियों के जिन्दा रहने और प्रजनन कर पाने की क्षमता अधिक रहती है. और पर्यावरण के हिसाब से न ढल पाने वाली प्रजातियों की यह संभावना कम रहती है. इसे ही Natural selection प्राकृतिक चयन का सिद्धांत कहते हैं.
- प्रकृति के हिसाब से होने वाले यह बदलाव धीरे धीरे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं और अंत में एक नई प्रजाति को जन्म देते हैं. [3] कुछ याद आया? ऐसा ही कुछ जॉन रे भी बोल के गए थे.
सरल शब्दों में समझें तो डार्विन ने कहा था कि -एक प्रजाति से समय और सरवाइवल की जरूरत के हिसाब से कोई बिल्कुल ही अलग प्रजाति भी बन सकती है, यानी इस बात की संभावना खुल गई थी कि वर्तमान में जो प्रजातियाँ हम देख रहे हैं वो किसी और प्रजाति से बनी हों और भविष्य में वो कोई बिलकुल ही अलग प्रजाति बन जाएँ!
डार्विन चचा सबूत क्या है ?
डार्विन चचा कोई हल्के फुल्के आदमी नहीं थे, ये थ्योरी देने के लिए पूरी दुनिया का चक्कर लगाये थे, सन 1831 में HMS बीगल नाम के एक नौसेना के जहाज पे सवार होकर ये दुनिया घूमने निकले, 2 साल की प्लानिंग कर के गये थे पर 5 साल बाद वापस आ पाए.
इस दौरान डार्विन ने कई नई प्रजातियों को देखा. दक्षिण अमेरिकी देश एक्वाडोर के पास एक जगह है जिसका नाम है गालापागोस आइलैंड. यहाँ डार्विन ने फिंच नमक चिड़िया की 18 प्रजातियों का अध्यन किया.
उन्होंने पाया कि फिंच की अलग अलग प्रजातियों में चोंच की बनावट अलग अलग थी. लेकिन ये सब प्रजातियाँ जब एक ही टापू पर एक जैसे माहौल में रह रहीं हैं तो इनमे इतना ज्यादा अंतर क्यों है?
इस सवाल का जवाब डार्विन ने खोज निकाला, उनके अनुसार- चोंच की बनावट में ये अंतर वहां उपलब्ध खाने की चीज़ों के हिसाब से है, मसलन जो फिंच कीड़े खा रहीं थीं उनकी चोंच लम्बी थी जिससे वो कीड़ों को आसानी से पकड़ सके, जो फल खा रही थीं उनकी चोंच छोटी थी, जो बीज खा रहीं थी उनकी चोंच मोटी और मजबूत थी जिससे वो सख्त बीजों को तोड़ सकें.
ऐसा होना इस बात का सबूत था कि फिंच की एक प्रजाति से ही 18 अन्य प्रजातियां निकली थीं. डार्विन के इस निष्कर्ष को प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी द्वारा 2015 में की गई एक DNA आधारित रिसर्च में भी सही पाया गया. [4]
डार्विन ने सिर्फ कुछ चिड़ियों को देख कर ये थ्योरी नहीं दी थी, उन्होंने अपने सफ़र के दौरान दुनिया भर की अन्य कई प्रजातियों में भी यही पैटर्न देखा और इसी पैटर्न के आधार पर उन्होंने अपनी थ्योरी दी.
Evolution का सॉल्यूशन
इस डार्विन पुराण से आपको evolution की थ्योरी के पीछे की कहानी तो समझ आई होगी पर पर डार्विन के बाद क्या हुआ? क्या कोई नई नही खोज हुई? ये सवाल भी आपके मन में होंगे. 1859 में डार्विन की किताब On the Origin of Species आने के बाद 1865 में ग्रेगर मेंडल नामक ऑस्ट्रियन पादरी ने अपने बगीचे में मटर के पौधों के ऊपर किये गए प्रयोग के आधार पर एक रिसर्च पब्लिश की जिसमें सबसे पहले इस सवाल को हल करने की कोशिश हुई कि “आखिर वो क्या है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है?”
मेंडल ने कहा कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाने वाली चीज “elementen” या “फैक्टर्स”[5] हैं, इन्हीं फैक्टर्स को आज हम “जीन” के नाम से जानते हैं. अब तक लोगों को ये बात समझ आ चुकी थी कि कुछ तो है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाता है और इसमें होने वाले बदलाव के कारण ही कोई नई प्रजाति बनती है. पर वो चीज है क्या ये अभी तक क्लियर नहीं था.
काफी समय तक ये माना जाता रहा कि मेंडल के ‘फैक्टर्स’ या जेनेटिक मटेरियल कुछ प्रोटीन हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी में ट्रांसफर होते हैं. फिर आया साल 1944 जब एवरी, मैकार्थी और मैक्लेओड की तिकड़ी ने कई सालों की मेहनत के बाद खुलासा किया कि जेनेटिक मटेरियल दरअसल DNA है [6] और यही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचता है.
ये DNA ही है जिससे हर प्रजाति की पूरी जानकारी स्टोर रहती है. किसी भी प्रजाति में कोई भी ऐसा बदलाव जो अगली पीढ़ी तक ट्रांसफर हो सके वो DNA में बदलाव किए बिना संभव नहीं है. यानी evolution में होने वाले बदलावों का सुराग हमें DNA में मिल सकता है. DNA के जरिये हम किसी भी जीव के पुरखों का पता लगा सकते हैं, इस प्रक्रिया को phylogeny एनालिसिस कहा जाता है.
एक नूर से सब जग उपजा…
जब से बाहरी नैन नक्श की जगह DNA में मौजूद जानकारी के आधार पर प्रजातियों का क्लासिफिकेशन शुरू हुआ तब से कई नये रहस्य खुलने लगे. हर प्रजाति कहीं न कहीं एक दूसरे से जुडी दिखाई देने लगी.
उदहारण के तौर पर चिम्पांजी और इंसान के बीच DNA के स्तर पर 99 फीसदी से अधिक समानता है. कई पेड़ पौधे जो देखने में बिलकुल अलग लगते हैं वो आपस में जुड़े हुए हैं.
बैक्टेरिया और फंगस जैसे सूक्ष्म जीवों की कई प्रजातियाँ भी आपस में जुडी हुई हैं. और धरती पर मौजूद ये करोड़ों प्रजातियाँ अंत में अपने सबसे पुराने पुरखे यानि LUCA से जा कर मिलती हैं.
LUCA का फुल फॉर्म है (last universal common ancestor) LUCA बोले तो वो सबसे पहली कोशिका जो इस धरती पर पैदा हुई होगी….इस एक कोशिका से ही आज धरती पर मौजूद लाखों प्रजातियों का वजूद है. शॉर्ट में समझें तो LUCA हम सब का अल्टीमेट पुरखा है।
इतिहास और विज्ञान की गलियों में घूमते हुए हम Evolution की कहानी के आखिरी पड़ाव पर आ चुके हैं, इस कहानी का कुल जमा हिसाब ये है कि हम इस धरती पर मौजूद हर जीव से अपना एक हिस्सा साझा करते हैं. जैसा कि किसी ने कहा है – “एक बादल में कई झीलों का पानी होता है” उसी तरह हमारे DNA में भी बन्दर से लेकर बैक्टीरिया तक का भी कुछ हिस्सा है.
ये साझेदारी एक जिम्मेदारी भी लेकर आती है और वो जिम्मेदारी है आने वाली प्रजातियों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़ के जाने की. Evolution एक बहुत ही रोचक विषय है इसमें आज भी ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब खोजे जाना बाकी है.
अपने आस पास इन सवालों के जवाब तलाशते रहें हो सकता है आपको भी डार्विन की तरह अपने आँगन में फुदकती चिड़िया में इनका जवाब मिले.
REFERENCES-
- http://www.jstor.org/stable/2808399
- CAIN, A. J. (1999). John Ray on the species. Archives of Natural History, 26(2), 223–238. doi:10.3366/anh.1999.26.2.223
- https://www.britannica.com/list/what-darwin-got-right-and-wrong-about-evolution
- https://www.princeton.edu/news/2015/02/11/gene-shaped-evolution-darwins-finches
- https://www.nature.com/scitable/topicpage/gregor-mendel-and-the-principles-of-inheritance-593/
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