क्या सरकार की प्राथमिकता लोगों के हित से हटकर कम्पनियों के हितों पर आ गई है? देश की संसद का काम होता है जनता के हित को ध्यान में रखते हुए कानून बनाना, पर कोई कानून जनता के हित मे है भी या नहीं ये कैसे तय हो? इसके लिए जरूरी है कि हम संसद में लाये गए या पास हो चुके कानूनों के बारे में चर्चा करें और उनका मूल्यांकन करें। आज हम बात करेंगे एक ऐसे कानून की जिसके बारे में विशेषज्ञ कई आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं। 9 अगस्त 2022 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित दिनेश ठाकुर और प्रशांत रेड्डी के आर्टिकल के अनुसार इस कानून में बहुत सी खामियां हैं जो हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए समस्या बन सकती हैं।

बीते जुलाई महीने में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अंग्रेजों के समय से लागू ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 को बदलने के लिए एक नया बिल जनता के सामने रखा था। यह प्रस्तावित बिल ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) की अध्यक्षता में आठ अफसरों की एक ड्राफ्टिंग समिति द्वारा लिखा गया था।

हालांकि ज्यादातर नया कानून पुराने कानून की नकल है पर, कुछ प्रस्तावित संशोधन दवाओं की संपूर्ण गुणवत्ता को एक मानक न मानकर बहुत से मानकों का समूह मानते हैं। आसान शब्दों में – मसलन, पहले यदि दवा की गुणवत्ता को 10 मानकों पर जांचा जाता था और किसी एक मानक पर भी फेल होने पर उसे बाज़ार में नहीं आने दिया जाता था। अब इस कानून ने कुछ मानकों पर फेल होने के बावजूद भी दवा को बाजार में ला सकने की गुंजाइश दे दी है।

बिल को ड्राफ्ट करने वाले लोग शायद यह मानते हैं कि एक दवा कुछ गुणवत्ता मानकों पर फेल होने पर भी काम करेगी। भारत मे दवाइयों के गुणवत्ता मानकों को निर्धारित करने वाली संस्था Indian Pharmacopoeia Commission (IPC) दवाओं की गुणवत्ता मानकों की एक सूची जारी करती है। यदि  दवा इन सभी मानकों को पास करती है तो उसे बाज़ार में आने दिया जाता है। किसी एक मानक पर भी फेल होने पर उसे बाजार में बेचने की अनुमति नहीं दी जाती है।

IPC के प्रकाशित मानकों के अनुसार गुणवत्ता परीक्षण में फेल होने वाली दवाओं को not of standard quality (NSQ) घोषित किया जाता है। ऐसी दवाइयों के निर्माताओं पर कुछ अपवादों को छोड़कर न्यूनतम एक वर्ष की कैद और अधिकतम दो साल की कैद और 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है।

दवा की गुणवत्ता के मामलों में आपराधिक दंड का औचित्य सरल है: अन्य प्रोडक्ट्स से अलग, दवाओं के निर्माण में गुणवत्ता में कमी का नागरिकों के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

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सरकार द्वारा प्रस्तावित इस नए नज़रिए को दवाइयों के रेगुलेशन में एक काम-चलाऊ नज़रिए के रूप में देखा जा सकता है। इसका उद्देश्य मौजूदा कानून के तहत कुछ अपराधों को decriminalize करने की फार्मा इंडस्ट्री की मांग को स्वीकार करना है।

नए विधेयक की धारा 56 (ई) में उन दवाओं के लिए दंड कम करने का प्रस्ताव है जिन्हें विधेयक की चौथी अनुसूची में सूचीबद्ध 43 डिफेक्ट में से किसी के कारण NSQ घोषित किया गया है। 

ऐसे दोषों के लिए, निर्माता को एक वर्ष की जेल और दो लाख रुपये के जुर्माने का प्रावधान है, जबकि वो डिफेक्ट जो चौथी अनुसूची के भीतर नहीं आते हैं। उनके लिए निर्माता को दो साल तक के कारावास और 5 लाख रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।

चौथी अनुसूची के डिफेक्ट के लिए कम दंड, इस कानून के उन वास्तविक इरादों पर एक पर्दा डालने का काम करता है, जो इस कानून की धारा 71 में देखे जा सकते हैं। इसके कुछ प्रावधान अपराधों की “कम्पाउंडिंग” यानी जुर्माना देकर छूटने की गुंजाइश पैदा करते हैं। ये कम्पाउंडिंग चौथी अनुसूची के अपराधों पर भी लागू है।

“कंपाउंडिंग” का अर्थ है कि यदि आरोपी दवा कंपनी जुर्माना अदा करने के लिए तैयार है, तब तक मुकदमा चलाने वाले ड्रग कंट्रोलर के पास ट्रायल और जेल की सजा को माफ करने का अधिकार होता है। असल में इस कानून के जरिए फार्मा कम्पनियों ने अपराधों को “decriminalize” करवाने के अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है।

इस बिल में धारा 58 भी है, जो सरकार को चौथी अनुसूची में अपवादों की सूची को बढ़ाने की शक्ति देती है। फार्मा उद्योग के राजनीतिक दखल को देखते हुए, कहा जा सकता है कि यह निश्चित रूप से देर सबेर सरकार को मौजूदा 43 अपवादों की सूची को आगे बढ़ाने के लिए मजबूर करने में सफल होगा। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इन प्रावधानों के जरिये सरकार फार्मा कम्पनियों के हितों के लिए जनता के हितों से अधिक चिंतित दिखती है।

चौथी अनुसूची में 43 डिफेक्ट को शामिल करने का कोई वैध वैज्ञानिक आधार नहीं है। उदाहरण के लिए किसी दवा में सक्रिय compound की मात्रा को ही लें- IPC ​​​​एक दवा को मानक गुणवत्ता के रूप में घोषित करने की तब अनुमति देता है, जब सक्रिय compound की मात्रा लेबल पर लिखी मात्रा के 90 प्रतिशत से 110 प्रतिशत के बीच हो।  हालांकि, चौथी अनुसूची की प्रविष्टि 4 में अब इस मात्रा को 70 फीसदी कर दिया है। इस प्रावधान का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, क्योंकि कोई भी दवा जिसमें सक्रिय compound का केवल 70 प्रतिशत ही होता है उससे प्रतिकूल परिणाम यानी adverse treatment outcomes हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए, यदि 10 एंटीबायोटिक गोलियों की एक पट्टी में प्रत्येक टैबलेट में लेबल पर लिखी हुई 100 मिलीग्राम सक्रिय compound के बजाय अघोषित रूप से केवल 70 मिलीग्राम सक्रिय compound होता है, तो उपचार के 10 दिन के अंत में, रोगी को डॉक्टर द्वारा निर्धारित 1,000 मिलीग्राम के बजाय केवल 700 मिलीग्राम एंटीबायोटिक प्राप्त होगा। इससे न केवल रोगी संक्रमण से पूरी तरह ठीक नहीं होगा, बल्कि संभावना है कि वह अब एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट बैक्टीरिया भी रोगी के भीतर पनपने लगें, क्योंकि ये कम डोज बैक्टीरिया को पूरी तरह खत्म करने में सक्षम नहीं होगा।

लेवोथायरोक्सिन या बुडेप्रियन जैसी दवाओं के मामले में उपचार के परिणाम कई गुना खराब होंगे, जिनमें “narrow therapeutic index” (NTI) होता है, जहां खुराक में मामूली बदलाव भी उपचार के परिणामों में महत्वपूर्ण अंतर पैदा कर सकता है।

चौथी अनुसूची में शामिल अन्य डिफेक्ट में दवाई के भीतर “बाहरी कणों का संक्रमण/ बाहरी पदार्थ” और “भारी धातु” की मौजूदगी हैं। इस प्रकार, भले ही कोई दवा कांच के कणों, फंगस या भारी धातुओं से दूषित पाई जाती है तब भी इन नए प्रावधानों के अनुसार निर्माता बहुत कम या बिना जेल जाए सिर्फ जुर्माना देकर बच जाएगा।

कुछ डिफेक्ट को दूसरों की तुलना में अधिक गंभीरता से देखने के लिए कोई नैतिक या वैज्ञानिक आधार नहीं है जबकि IPC के मानक गुणवत्तापूर्ण  दवा के लिए वैज्ञानिक आधार पर बहुत स्पष्ट है। इस प्रकरण से बड़ा निष्कर्ष यह है कि भारत का अधिकांश दवा नियामक तंत्र दवा उद्योग के हितों के प्रति अधिक गंभीर है, न कि लोगो के स्वास्थ्य के लिए।

2012 में, स्वास्थ्य पर संसदीय स्थायी समिति ने Central Drugs Standard Control Organization (CDSCO) के खिलाफ यही आरोप लगाया था, जिसकी अध्यक्षता Drugs Controller General of India (DGCI) करते हैं।

एक अच्छी सरकार की प्राथमिकता लोगों को बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करने की होती है। लेकिन इस कानून को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार की प्राथमिकता लोगों के हित से हटकर कम्पनियों के हितों पर आ गई है।

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