पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई अग्निपथ योजना को लेकर हमारे समाज में कई तरह की अवधारणाएं सामने आई हैं, लेकिन अभी तक ठोस मूल्यांकन कम सामने आए हैं। द न्यूज बीन्स के लिए अर्थशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ। राजेन्द्र चौधरी ने इस योजना का मूल्यांकन किया है। पढ़िए उन्हीं के शब्दों में।

‘अग्निपथ’ का मूल्यांकन दो अलग अलग नज़रिये से हो सकता है. एक नजरिया फ़ौज में जाने के इच्छुक लोगों का एवं दूसरा व्यापक समाज का। बहुत बार ऐसा होता है कि जो योजना समाज/देश हित में होती है, उस से कुछ लोगों का व्यक्तिगत तौर पर तात्कालिक नुकसान भी हो सकता है। इस लिए अग्निपथ का मूल्यांकन फ़ौज में भर्ती होने के इच्छुक लोगों के नज़रिये से नहीं अपितु व्यापक समाज के नज़रिये से करना चाहिए। लेकिन इस समीक्षा से पहले, अग्निपथ के बारे में कुछ बुनियादी जानकारी रखनी ज़रूरी है।

सरकारी दस्तावेजों के अनुसार (अग्निपथ बाबत यहाँ दी गई सारी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध सरकारी दस्तावेजों से ली गई है) अब मेडिकल ब्रांच को छोड़ कर सभी सामान्य सैनिकों की भर्ती अग्निपथ योजना के तहत ही की जायेगी। अग्निपथ में भर्ती की प्रक्रिया, उस के तौर तरीकों में कोई बदलाव नहीं किया गया; बदलाव केवल ‘सेवा शर्तों’ में है। इस में सेवा की अवधि मात्र 4 वर्ष रहेगी जिस में प्रशिक्षण की अवधि भी शामिल है

4 साल पूरे होने पर, आवश्यकता होने पर अधिकतम 25% अग्निवीरों को नौकरी में रखा जा सकेगा। यानी 4 साल बाद 25% अग्निवीरों की नियमित भर्ती होनी भी आवश्यक नहीं है। मासिक वेतन के अलावा कोई महंगाई भत्ता एवं फ़ौजी सर्विस भत्ता नहीं मिलेगा। मासिक वेतन के अलावा केवल दुर्गम इलाकों/ सेवाओं में तैनाती के दौरान जोखिम एवं कठिनाई भत्ता, तथा राशन, वर्दी एवं यात्रा भत्ता मिलेगा।

मूल वेतन का 30% अनिवार्य रूप से भविष्य निधि, जिसे सेवा निधि कहा गया है, में जमा होगा। सरकार भी सेवा निधि के लिए इतनी ही राशि जमा करायेगी। यानी चार साल बाद नौकरी ख़त्म होने पर मिलने वाली सेवा निधि में से आधा पैसा तो अग्निवीर के अपने वेतन से आया होगा। अग्निवीर की वर्दी इत्यादि नियमित सैनिकों से भिन्न होगी परन्तु उन से लिए जाने वाले काम एवं तैनाती इत्यादि के नियमों में कोई अंतर नहीं होगा।

सालाना छुट्टी अधिकतम 30 दिन होगी। नौकरी ख़त्म होने पर वे भूतपूर्व सैनिक नहीं कहलायेंगे और न ही उन्हें भूतपूर्व सैनिकों को मिलने वाले आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं का लाभ मिलेगा। अग्निवीर भर्ती के विज्ञापन में चार साल की नौकरी के बाद उन के लिए अलग से किसी आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। नियमित भर्ती के लिए चुने जाने पर पेंशन के लिए कम से कम 15 साल की अतिरिक्त नौकरी करनी होगी।

क्या यह योजना देश/ समाज हित में है?

दावा: आधुनिक युद्ध के लिए तकनीकी रूप से सक्षम फ़ौजी मिलेंगे।

दावे की पड़ताल: भर्ती के तौर तरीकों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। पहले से भर्ती में तकनीकी शिक्षा के बोनस अंक मिलते हैं। इनको और बढ़ाया/ व्यापक बनाया जा सकता है। सेना को आधुनिक युद्ध के लिए तकनीकी रूप से सक्षम बनाने के लिए सेवा शर्तों एवं सेवा अवधि में बदलाव आवश्यक नहीं।

दावा: हालाँकि सरकारी दस्तावेजों में इस का ज़िक्र नहीं है परन्तु अग्निपथ योजना के समर्थकों का मानना है कि इतनी बड़ी फ़ौज की ज़रूरत नहीं है।

दावे की पड़ताल: अगर वास्तव में फ़ौज की संख्या कम करने की ज़रूरत है, तो भर्ती संख्या कम की जा सकती है। सेवा शर्तों/ अवधि में बदलाव क्यों?

दावा: अपेक्षाकृत युवा फ़ौज चाहिए।

दावे की पड़ताल: अब युद्ध में क्या ऐसा हो गया कि पहले से ज़्यादा युवा फ़ौज चाहिए? फिर भी अगर ऐसा है तो नियमित भर्ती के लिए अब सेवा अवधि बढ़ा कर 19 (4+15) साल क्यों कर दी है? जब एक ओर सरकार के अनुसार क्योंकि आज का युवा अपेक्षाकृत ज़्यादा सक्षम/ स्वस्थ है इसलिए थोड़ी अवधि का प्रशिक्षण पर्याप्त है, तो फिर सेवा अवधि कम करने की क्या ज़रूरत? फिर भी अगर औसत आयु कम करने की ज़रूरत है, तो सेवानिवृति की उम्र एक दो साल कम की जा सकती थी, सेवा काल घटा कर 4 साल करने की क्या ज़रूरत है?

दावा: चार साल के बाद सेवा निवृत होने पर देश को उच्च प्रशिक्षण प्राप्त अग्निवीरों के रूप में बेहतर युवा मिलेंगे एवं अग्निवीरों के लिए बेहतर भविष्य के दरवाज़ें खुल जायेंगे।

दावे की पड़ताल: अगर ऐसा है, तो चार साल बाद सेवानिवृति अनिवार्य क्यों? इसे स्वैच्छिक बना दीजिये। जिसको सेना के बाहर बेहतर विकल्प दिखते हों, जिसे सेवा निधि के रूप में आवश्यक पूंजी मिल रही हो, उसको छोड़ने का मौका दे दीजिये। शेष को सेना में रहने दें। ज़बरदस्ती सेवा निधि का ‘हलवा’ क्यों खिला रहे हैं? वैसे भी सरकारी दस्तावेज़ मानते हैं कि ज़्यादातर देशों में सेना छोड़ने के कई स्वैच्छिक रास्ते/ मौके उपलब्ध होते हैं फिर हम क्यों अनिवार्य रूप से चार साल बाद निकाल रहे हैं? जहाँ तक देश को प्रशिक्षित युवा मिलने की बात है, स्कूली/कालेज शिक्षा को सुधार कर भी तो अपने युवाओं की गुणवता सुधारी जा सकती है। पुलिस एवं फ़ौज की सेवा के लिए ही अलग अलग तरह की योग्यता/ मानसिकता चाहिए होती है। फिर फ़ौजी योग्यता/मानसिकता अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में कैसे लाभकारी होगी?  

दावा: हालाँकि सरकारी दस्तावेजों में इस का ज़िक्र नहीं है, परन्तु अग्निपथ के समर्थकों का मानना है कि देश पेंशन का बोझ सहन नहीं कर सकता। इसलिए बिना पेंशन की नौकरी ज़रूरी है। 

दावे की पड़ताल: बुढ़ापा तो सब को आना है। इसलिए चाहिए तो यह कि सबका बुढ़ापा सुरक्षित हो; जिन का बुढ़ापा अभी तक सुरक्षित नहीं है, उन का भी सुरक्षित हो, परन्तु हमारी सरकार कर इसका उलटा रही है। पेंशन (या अन्य सरकारी सेवायें) किसी एक व्यक्ति या कुछ लोगों की जेब से नहीं आती। यह समाज का ही पैसा होता है, जो समाज के काम आता है। उत्तरी यूरोप के कई छोटे-छोटे देशों में ऐसी व्यवस्था है कि बचपन और बुढ़ापे में समाज/ सरकार व्यक्तियों को देती हैं (अकेले रहने वाले बूढें व्यक्तियों के बैंक, डाकखाने, हस्पताल या बाज़ार के काम कराने के लिए नगरपालिका से हफ्ते में एक दिन कर्मचारी उन के पास आता है एवं उन के साथ जा कर उन के काम कराता है) एवं नागरिकों के कमाने की उम्र में समाज उन से लेता है। जापान जैसे देश में बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र की नौकरी भी लगभग उम्र भर की होती है। जैसे गाँव/ समुदाय के स्तर पर होता है, जिसकी जैसी आर्थिक स्थिति होती है, वह सार्वजनिक/ सामुदायिक कार्य के लिए अपना सहयोग देता है या उस अनुपात में उस से लिया जाता है। कर की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए की क्षमता अनुसार संसाधन इकट्ठे कर के, उसका देश/ समाज के हित में प्रयोग किया जाना चाहिए। पेंशन सुविधा तो सब को मिलनी चाहिए न कि छीनी जानी चाहिए। बुढ़ापा/ बीमारी/ बचपन को तो कम से कम बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

सरकारी दावों की उपरोक्त पड़ताल से यह स्पष्ट है, कि अग्निपथ के लाभ के तथाकथित दावे झूठे हैं, तर्क गलत हैं।  परन्तु क्या इस योजना से कोई नुकसान भी होगा?

सब से पहले तो इस का मूल्यांकन करें, कि देश की सुरक्षा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आज सफ़ल निजी उद्योग भी यह प्रयास करते हैं कि उन के कर्मचारी टिके रहे, वे जल्दी-जल्दी नौकरी न बदलें। इसके लिए उन्हें शेयर तक दिए जाते हैं। निजी उद्योग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि जब तक कर्मचारी की संस्था में निष्ठा नहीं होगी, उस के निजी हित कम्पनी के हित से जुड़े नहीं होंगे, तब तक उन के काम की गुणवता उच्च दर्जे की नहीं होगी। परन्तु अग्निपथ योजना तो देश के सुरक्षा प्रहरियों की नौकरी को कच्चा कर रही है। कच्ची नौकरी वालों से दबाव बना कर काम तो कराया जा सकता है, कराया भी जाता है, परन्तु उच्च गुणवता का और वो भी ऐसा काम जिस को नापने के कोई सर्वमान्य मापदंड न हो, नहीं कराया जा सकता। ठेके पर वही काम कराया जाता है जिस की गुणवता नापना आसान हो वरना तो हर काम पीस रेट पर कराया जाता। नई शिक्षा नीति के दस्तावेज़ भी यह कहते हैं कि शिक्षकों की नियमित भर्ती न होने से शिक्षा का स्तर गिरा है।

आज कई सरकारी दफ्तरों/ संस्थानों में दो तरह के कर्मचारी हैं। आम अनुभव यह है कि इन दो तरह के कर्मचारियों में आपस में सहयोग-भाईचारे की भावना नहीं होती बल्कि गहरी खाई होती है। अगर युद्ध के मोर्चे पर भी ऐसे ही दो तरह के फ़ौजी होंगे, जिन के बीच परस्पर विश्वास, भाईचारा, अपनापन, एकता नहीं होगी, तो देश की सुरक्षा कैसे होगी?

अगर फ़ौज की नौकरी कच्ची हो गई तो क्या देश में और कोई नौकरी पक्की रहेगी?

इस लिए अग्निपथ का खामियाजा न केवल फ़ौज में भर्ती होने वाले नौजवानों को भुगतना पड़ेगा, अपितु यह देश की सीमाओं की सुरक्षा के साथ भी खिलवाड़ है। यह सरकारी व गैर-सरकारी सभी तरह की नौकरियों की सुरक्षा कम करने की ओर भी एक बड़ा कदम है। जैसा कि कृषि कानूनों कि मंशा थी, यह सब कुछ बाज़ार के भरोसे यानी कुछ पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ने की तैयारी है। पहले से ही देश बड़े पूंजीपतियों के हित में चल रहा है, अब यह उस ओर दौड़ने का इशारा है। दाँव पर केवल फौजियों की भर्ती नहीं है, हम सब का जीवन है। अग्निपथ देश के विनाश का पथ है। इसे रोकना ही होगा।

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राजेन्द्र चौधरी

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