सोशल मीडिया जिसे शुरुआत में काफी बड़ी क्रांति के तौर पर देखा गया आज वही लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा पैदा करने लगा है, तुलसीकृत रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में एक चौपाई है “ जो हित करे, करे तेहि पीड़ा, उरग स्वांस सम त्रिविध समीरा” इसका व्यापक अर्थ यदि देखा जाये तो ये है कि जो कल तक हितकर थे आज वो हानिकारक हो गए हैं, अगर इसे वैश्विक परिवेश में देखा जाये तो सत्ताधारी दल इस माध्यम का गलत प्रयोग करके सदा के लिए सत्ता में बने रहना चाहते हैं, चाहे वो अमेरिका हो या एशियाई देश जैसे भारत, ये वो दौर था जब सोशल मीडिया एक नए संचार माध्यम के तौर पर भारत में उभर रहा था, ये एक शाश्वत प्रक्रिया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी नई जगह पर जाता है तो वहां वो अपने समान लोगो को तलाशता है, यदि आप विदेश जाते हैं तो सबसे पहले ये पता करते हैं कि आपके देश के कितने लोग पहले से वहां पर मौजूद हैं, इसी प्रकार यदि कोई नया यूजर सोशल मीडिया पर आता है तो वो समानताएं तलाशता है, वो समानताएं कुछ भी हो सकतीं हैं, सबसे बड़ी समानता है जाति और धर्म व्यक्ति सबसे पहले अपने जैसे ही जाति या धार्मिक विचारों के लोगो को सोशल मीडिया पर फॉलो करता है, यहाँ तक तो भी ठीक है, पर जब किसी धार्मिक गुट में कट्टरता को किसी कारण बढ़ावा मिलने लगता है और फिर धीरे धीरे ये कट्टरता पूरे वर्चुअल समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेती है, इसका असर ज्यादातर सिर्फ अवचेतन मन पर ही होता है, पर अगर इस कट्टरता से आपका सामना काफी ज्यादा समय तक होता है तो ये आपके व्यवहार में भी झलकने लगती है, और समाज का ताना बाना इससे प्रभावित होता है,
ये तो रहा कैसे सामाजिक तौर पर इस प्रक्रिया से कट्टरता बढती है, फर्ज करिए की एक व्यक्ति ये सोचता है कि मुसलमानों को देश में नही रहना चाहिये, उसने ये बात सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी और उसे कुछ समान विचारधारा वाले लोगों का समर्थन मिल गया तो वो व्यक्ति इस विचार को और आगे ले जायेगा न कि उसमे बदलाव करेगा, सामाजिक परिदृश्य के साथ ये समानता का नियम राजनैतिक परिदृश्य पर भी लागू होता है, समान राजनैतिक विचारों के आधार पर विभिन्न गुट सोशल मीडिया पर बन जाते हैं, और इन गुटों के सदस्य एक दूसरे का खंडन तर्कसंगत तरीके की जगह हर तरह की निकृष्टतम भाषा से करते हैं, और इसमें बड़ा गर्व महसूस करते हैं, सोशल मीडिया पर तथ्यों को हद दर्जे तक तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को समाप्त करने के हर संभव प्रयत्न किया जाता है चाहे वो व्यक्तिगत जिन्दगी पर लगाये गये निराधार आरोप हों या महज कोरी गाली गलौच, सब तरह के खेल बड़े ही नियोजित तौर पर खेले जाते हैं, और इस माध्यम का इस्तेमाल फर्जी विकास दिखाकर लोगों को भरमाने के लिए भी किया जा रहा है,
दो चुनावों के बीच में जो अंतराल होता है उस दौरान राजनैतिक दल सोशल मीडिया का इस्तेमाल लोगो को असली मुद्दों से भटकाने के लिए किया जाता है, जिससे दो लक्ष्य सिद्ध होते हैं एक तो लोग सवाल नही पूछ पाते, और दूसरा लोगों में एक नकली संतोष की भावना बनी रहती है, इसके बाद नए चुनाव आ जाते हैं और चुनावी मुद्दे हावी हो जाते हैं, और ये चक्र चलता रहता है, इस कुटिलता भरी प्रक्रिया से लोकतंत्र प्रभावित होता है, और जो दल या नेता असल में काम कर रहे होते हैं वो पीछे रह जाते हैं, और सोशल मीडिया द्वारा हवा खड़ी कर चुनाव जीत लिए जाते हैं, जो दल पहले से मौजूद बड़े दल के लिए चुनौती बनता है उसे भी बहुत चालाकी से सोशल मीडिया के जरिये एक उन्माद और आरोपों की आंधी में घेर कर खत्म कर दिया जाता है,
नेता भी सोशल मीडिया की भावना को ही जमीनी भावना मानने लगे हैं और उनका सम्पर्क असली मुद्दों से कट गया है, समय समय पर नए नए शिगूफे छोड़े जाते हैं जिसके जरिये इन्हें मुख्य मीडिया के साथ साथ सोशल मीडिया में भी जगह मिलती है, इस के साथ साथ उदार आवाजों तक को दबाने का काम भी बहुत सुनियोजित ढंग से किया जाता है. सिर्फ एक विचार और एक व्यक्ति की लगातार बात की जाती है और लोकतंत्र को सिर्फ व्यक्तिवाद की तरफ मोड़ दिया जाता है. एक महिमामंडित लेकिन अंदर से खोखले विचार को हमारे सामने रख दिया जाता है और हमारे पास उसे ही चुनने का विकल्प होता है, मतदाता या तो कार्यकर्ता बन जाता है या फिर अंध भक्त, मतदाता के पास तटस्थ रहकर विचार करने का विकल्प ही नहीं होता और अंततः पूरा समाज धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक रूप से ध्रुवीकृत हो जाता है, मुद्दे गौण हो जाते हैं, गरीबों की आवाज सोशल मीडिया के शोर में खो जाती है, लोकतंत्र सिर्फ धनबल और कुटिलता का अड्डा बन जाता है, हम और आप अंधे हो जाते हैं, इसलिए आज का युग सही मायने में सोशल मीडिया का अंधा युग है.
-सिद्धार्थ सिंह तोमर