जिस तरह हमने आचार्य चाणक्य को ‘साम,दाम,भेद,दंड’ (अर्थशास्त्र के अनुसार यही सही क्रम है) के सिद्धांत तक ही सीमित कर दिया है उसी तरह महाराणा प्रताप को भी भाले के वजन और एक बार में शत्रु को घोड़े समेत काटने अतिश्योक्तिपूर्ण संस्मरणों में बांध दिया है। लोकभावना और कथाओं में ऐसी अतिश्योक्तियाँ सर्वथा उचित और स्वीकार्य हैं पर किसी ऐतिहासिक नायक के बारे में पूरा विमर्श इन्हीं अतिश्योक्तियाँ के इर्द गिर्द नहीं गढ़ना चाहिए। ऐसा कर के हम उस नायक द्वारा किये गए अन्य महत्वपूर्ण कार्यों को जनमानस में गौण कर देते हैं।
महाराणा प्रताप के युद्ध कौशल और रणनीति में किये गए प्रयोग उस समय के हिसाब से काफी आधुनिक थे। गुरिल्ला युद्ध की सोच और अरावली की पहाड़ियों का रणनीतिक इस्तेमाल इससे पहले किसी शासक ने नहीं किया था। इस गुरिल्ला रणनीति का बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी मुगलों के खिलाफ सफलतापूर्वक प्रयोग किया। महाराणा प्रताप ने अपनी पूरी सामरिक शक्ति को एक जगह केंद्रित न करके उसका विकेंद्रीकरण किया और जनमानस को विश्वास में लेकर एक शुरुआती ‘इंटेलीजेंस नेटवर्क’ बनाया जिसके जरिये उनको युध्द में उपयोगी सूचनाएं निरन्तर पहुंचती रहती थीं। महाराणा प्रताप शायद पहले भारतीय शासक थे जिन्होंने युद्ध में तोपखाने (artillery) के महत्व को समझा, इसके लिए उन्होंने अफ़ग़ान तोपची हाकिम खां सूर को अपनी सेना में शामिल किया।
राणा प्रताप ने सामाजिक स्तर पर भी कई अभूतपूर्व कदम उठाये जिसमे सबसे महत्वपूर्ण था भील जनजाति को अपनी सेना में शामिल करना। राजपूत सेना में समानता के साथ भीलों को शामिल करना सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ एक काफी बड़ा कदम था। उन्होंने इस बात को समझ लिया था कि जातीय भेदभाव से ग्रस्त समाज कभी भी किसी विदेशी आक्रांता का सामना नहीं कर सकता।
इसे एक अभूतपूर्व कदम इसलिए भी माना जाता है क्योंकि भील जनजाति जंगलों में युद्ध करने में निपुण थी, भील जनजाति की सबसे बड़ी ताकत थी उनके ‘तीर कमान’ जिसके जरिये उन्होंने छोटी छोटी टुकड़ियों में घात लगाकर काफी दूरी से तीरों के जरिये मुग़ल फौजों हलकान कर अरावली के क्षेत्र से मुगल फौजों को दूर रखा। इस रणनीति को आज की फौजी भाषा में low intensity conflict कहते हैं।
सेना की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए लोगों से दान लेने का एक अनोखा उदाहरण महाराणा प्रताप ने स्थापित किया, जनता से यथाशक्ति दान लेकर राणा प्रताप उन्हें स्वतंत्रता के लक्ष्य से वैचारिक स्तर पर भी जोड़ रहे थे। इन दानदाताओं में सबसे बड़ा नाम चित्तौड़ के नगरसेठ भामाशाह का है जिन्होंने संकट के समय बहुत बड़ी आर्थिक सहायता प्रदान की, ये धनराशि 20 हजार सैनिकों की सेना का 12 साल तक भरण पोषण करने के लिए काफी थी। बाद में महाराणा प्रताप ने उन्हें मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
ऐसे अनेक अभूतपूर्व उदाहरणों के कारण पूरा भारत महाराणा प्रताप का आदर करता है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘भारत की खोज’ में महाराणा प्रताप के बारे में लिखा है “Akbar won many people to his side and kept them there, but failed to subdue the indomitable spirit of Rana Pratap of Mewar in Rajputana, who preferred to lead a hunted life in jungle rather than give even formal allegiance to one he considered a foreign conquerer.”
अतः उचित तो ये होगा कि आज हम ये तय करें कि हमें किस बात पर ‘गर्व’ करना है, भाले, तलवार और कवच के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन पर या महाराणा प्रताप के ऐतिहासिक और अभूतपूर्व जीवन पर जिससे हमें हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ लड़ने की सतत प्रेरणा मिलती है।