आप ने advertisements में देखा होगा कई तरह के (anti-septic) साबुन या लिक्विड जैसे डेटोल जो मारे 99% तक कीटाणु। तो दिमाग में ख्याल तो आता ही होगा, कि ये 1 % किटाणु कौन से होते हैं जो किसी के मारे से नहीं मरते। आज हम बात करेंगे उन्हीं 1 % किटाणुओं (Bacteria) की जो नहीं मरते हैं और समझेंगे एंटी-बायोटिक्स (antibiotics) का तिया-पांचा.. माने एंटी-बायोटिक्स क्या हैं? वो कैसे काम करती हैं? और सबसे जरूरी कि क्यों कई बार एंटीबायोटिक्स भी इन्फेक्शन को खत्म नहीं कर पातीं?
“एंटी-बायोटिक्स” का मतलब क्या है?
“एंटी-बायोटिक्स” एंटी का मतलब विरुद्ध और बायोटिक का मतलब जीवित तो इन दोनों को जोड़ें तो जीवाणुओं के विरुद्ध या उनको खत्म करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले केमिकल्स को हम एंटीबायोटिक्स कहते हैं। तो क्या डेटोल और फिनायल भी एंटीबायोटिक्स हैं? इसका जवाब है- नहीं! एंटीबायोटिक्स वो केमिकल्स हैं जो एक जीवाणु दूसरे जीवाणु से खुद की रक्षा करने के लिए बनाता है। उदहारण के तौर पे दो बैक्टेरिया हैं और दोनों एक ही जगह पर पाए जा रहे हैं। एक बैक्टीरिया दूसरे बैक्टेरिया के साथ संसाधन शेयर नहीं करना चाहता है। वो चाहता है कि दूसरे वाले को निबटा दिया जाये। और ऐसा करने के लिए वो बनाता है एक केमिकल हथियार जिसे कहते हैं एंटीबायोटिक्स!
“एंटी-बायोटिक्स” की खोज किसने की?
एक बार ऐलिक्जेंदर फ्लेमिंग नाम के एक स्कॉटिश वैज्ञानिक ने देखा कि उसने अपनी लैब में जो बैक्टेरिया उगाया था वो आधा खत्म हो गया था और वहां एक फंगस उग आया था। फ्लेमिंग के दिमाग की बत्ती जली, उन्होंने सोचा कि ऐसा क्या है इस फंगस में जिसने इस बैक्टेरिया का काम तमाम कर दिया? खोज-बीन करने पर साल 1928 में फ्लेमिंग ने उस केमिकल का पता लगा लिया जिसने बैक्टेरिया को खत्म कर दिया था। फ्लेमिंग की इस खोज ने दूसरे विश्वयुद्ध में उन सैनिकों की जान बचाई जो इससे पहले साधारण से इन्फेक्शन से मर जाते थे। ये केमिकल था दुनिया का पहला एंटीबायोटिक “पेंसिलिन” और फंगस था “पेनिसिलियम नोटाटम” इस खोज के लिए फ्लेमिंग को 1945 में नोबेल पुरुस्कार भी मिला।
कैसे शुरू हुआ इन्सान और बैक्टेरिया के बीच कभी न खत्म होने वाला चूहे बिल्ली का खेल?
1928 में पेनिसिलिन की खोज के बाद इन्सान ने इसका बेतहाशा इस्तेमाल किया। शुरू में तो इसने बहुत अच्छा काम किया पर, धीरे-धीरे इन्फेक्शन पैदा करने वाले बैक्टेरिया इसके आदी हो गये और पेनिसिलिन का असर कम हो गया। सिर्फ ये ही नहीं और भी कई इन्फेक्शन पैदा करने वाले नये बैक्टेरिया आ गये। फिर शुरू हुआ इन्सान और बैक्टेरिया के बीच एक कभी न खत्म होने वाला चूहे बिल्ली का खेल, जैसे ही इन्सान कोई नई एंटीबायोटिक ले कर आता उसके कुछ समय बाद बैक्टेरिया उस एंटीबायोटिक के खिलाफ एक डिफेन्स बना लेता, और ये चक्कर आज तक चल रहा है। इस प्रक्रिया को कहते हैं “ एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस”।
आखिर बैक्टेरिया कैसे खुद को एंटीबायोटिक से बचा लेता है?
हमने शुरुआत में डेटोल के उस एड की बात की थी जिसमे 99% जीवाणुओं को मारने की बात की थी, पर वो 1% ऐसा क्या करते हैं जिससे वो बच जाते हैं। ये 1% वो बैक्टेरिया हैं जो अपने DNA को बदल लेते हैं इनके DNA में वो बदलाव हो जाते हैं जिससे इनके भीतर एंटीबायोटिक्स से बचने वाली खूबियाँ आ जाती हैं, और जब इन्सान लगातार एंटीबायोटिक्स इस्तेमाल करता है तो शरीर में सिर्फ वही बैक्टेरिया बचते हैं जो DNA में बदलाव कर के खुद को बचा पाने में सफल होते हैं। जब ये मजबूत हो चुका बैक्टेरिया इन्फेक्शन करता है तो एंटीबायोटिक इस पर बेअसर हो जाती हैं।
एंटी-बायोटिक रेसिस्टेंस को कैसे रोकें?
इसका जवाब है- कि अपने मन से जब चाहे तब एंटीबायोटिक खाना बंद करें। जबतक आपका डॉक्टर आपको एंटीबायोटिक लेने की सलाह न दे तब तक इसका इस्तेमाल न करें। ध्यान रहे, एंटीबायोटिक के बेजा इस्तेमाल से न सिर्फ आप एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस को बढ़ा रहे होते हैं बल्कि अपने शरीर के अंदर जो अच्छे बैक्टेरिया मौजूद हैं उनको भी खत्म कर रहे होते हैं. एंटीबायोटिक का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल आपके शरीर के जरूरी अंगों जैसे किडनी और लिवर को भी नुकसान पहुंचा सकता है. तो दोस्तों, google पे देख के डॉक्टर बनने से बेहतर है किसी क्वालिफाइड डॉक्टर के पास जाएँ और जरूरत के हिसाब से ही एंटीबायोटिक खाएं।