ध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।

तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः

पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥

अथर्ववेद के भूमि सूक्त का यह मंत्र पृथ्वी और मानव के बीच में माता और संतान का संबंध स्थापित करता है, इसका अर्थ है कि “हे पृथ्वी आपके भीतर एक पवित्र उर्जा का स्रोत है, हमें उस उर्जा से पवित्र करें, हे पृथ्वी आप मेरी माता हैं और पर्जन्य (वर्षा के देवता) मेरे पिता हैं”

माता और संतान के बीच का संबंध दो प्रकार के दायित्वों के निर्वहन पर टिका होता है, पहला दायित्व माता का संतान के प्रति होता है, और दूसरा दायित्व संतान का माता के प्रति।

यदि आज के परिपेक्ष्य में इसको हम देखें तो नजर आएगा कि माता और संतान के इस संबंध का सिर्फ एक पक्ष ही हमने स्वीकार किया है, हम ये तो समझ गये कि पृथ्वी से हमारी उत्पत्ति हुई तो पृथ्वी हमारी माता है, वह हमारे पालन पोषण के लिए आवश्यक सभी संसाधनों को धारण करती है,और इन संसाधनों पर हमारा एक निहित “अधिकार” है, क्योंकि हम इस पृथ्वी की सर्वोत्तम संतान हैं, और हम इसकी वन्दना में सूक्त और स्तोत्र आदि लिख सकते हैं तो इसपर हमारा अधिपत्य है। पर हम ये भूल गए कि पृथ्वी की अन्य संतानें भी हैं, जैसे एककोशकीय सायनो बैक्टेरिया, आर्कटिक के पोलर भालू, समुद्र की अतल गहराइयों में पलने वाले प्लैंकटन, यहां तक कि वुहान के चमगादड़ भी इसी की संतान हैं। इस दृष्टि से हम सब आपस में सहोदर हुए और अपनी माता व सहोदरों के प्रति हमारा भी एक दायित्व है जिसका निर्वहन हमें करना चाहिए। हालाँकि हमारे सहोदरों में पृथ्वी को बदलने की वो शक्ति नहीं है जो हमने हासिल कर ली है, अतः ये सभी जीव पृथ्वी के भविष्य का निर्धारण नहीं कर सकते।

पृथ्वी का पूरा भविष्य आज उसकी एक संतान पर टिका हुआ है, जो मानव या “होमो सेपियंस” कहलाती है, जिसके पास विज्ञान और भाषा के अस्त्र हैं, और जो काफी अहंकारी और साथ ही काफी कुटिल भी है। ये पृथ्वी से प्रेम करने का ढोंग रचाते हुए वो सब कर रही है जो अन्ततः पृथ्वी को नष्ट कर देगा! मानव ने पृथ्वी से प्रेम का भरपूर प्रदर्शन किया है फिर चाहे वो कविताओं में हो या धर्म ग्रन्थों में। पर इस प्रदर्शन के इतर पृथ्वी के दोहन को निरंतर जारी रखा, मानव ने अपने सहोदर भाइयों के घरों को उजाड़ना शुरू किया, उसने वर्षा वन खत्म किये जहाँ उसके भाई मानव के जन्म के लाखों वर्ष पूर्व से रह रहे थे। उसने महासागरों को प्लास्टिक के कूड़े से पाट दिया, उसने कारखाने लगा कर वायुमंडल को उन्हीं विषाक्त गैसों से दोबारा भर दिया जिसे लाखों वर्षों की मेहनत के बाद उसके लुप्त हो चुके भाइयों ने अपने भीतर सोख कर धरती में दबा दिया था।

इस सब के बाद भी निर्लज्जता की पराकाष्ठा बना हुआ मानव अपने निजी सुखों का लेशमात्र भी बलिदान किये बिना पृथ्वी के संरक्षण के लिए “पृथ्वी दिवस” जैसे तमाम कर्मकांडों रचता है, इन कर्मकांडों में भी उसका ही स्वार्थ निहित है, जिसके जरिये वो सिर्फ अपनी ग्लानि को कम करने की कोशिश में है। ये कर्मकांड उसके तमाम पापों पर कुछ देर के लिए नैतिकता का पर्दा डाल देते हैं। ये सभी कर्मकांड वैसे ही हैं जैसे एक पुत्र अपनी माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ साल में एक बार उससे मिलने जाता हो और फिर निर्लज्जता से कहता हो…

 माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः!!

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Siddharth Singh Tomar

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