इस साल नव-वर्ष मिलन समारोह में पक्ष के नेताओं की शिरकत आयोजकों के सिर-आँखों पर है। भारतीय राजनीति के ‘मौसम विभाग’ ने जिस ‘लहर’ की शिथिलता का अनुमान लगा लिया था, वही लहर समूचे ही विपक्ष को ले डूबी। विपक्ष के बाढ़-ग्रस्त कार्यालय के गलियारों में अब मातमपसरी का सन्नाटा है। आई.टी. सेल के जवान, गरम खून के कार्यकर्ताओं का ‘ट्विटराना’ धरा का धरा रह गया और तेवरों में पस्ती छा गयी है। हालात कुछ यूं हैं कि विपक्ष के हाइकमान से पक्ष के कार्यकर्ता ज़्यादा संतुष्ट दिखाई पड़ते हैं। खुसुर-पुसुर तो ये भी थी कि बड़े वाले नए मंदिर में पहला दिया विपक्ष के आलाकमान के टिकाऊपन के नाम लगाया गया था। वहीं पंडितों की दुकानों पर भीड़ जम रही है और अंगूठियाँ बदली या पहनी जा रही हैं। गौर करने वाली बात है कि आदमी का अंधविश्वास उसकी सफलता के सीधे अनुपात में घटता-बढ़ता है। वो भाग्यलक्ष्मी को अंगूठियों और कलावों में बाँध लेना चाहता है और इस खुशफहमी में जीता है कि अपने मकान के पाखाने की दिशा बदलकर वह अपने भाग्य की दशा भी बदल लेगा।

ऐसे ही खजूर में अटके नेताजी को किसी पंडित ने इतिहास की गवाही देते हुए सलाह दी कि ‘महागठबंधन’ अपने आप में ही मनहूस शब्द है। आजतक कितने ही ‘महागठबंधन’ महान सामरिक भूल साबित हुए हैं। तो अगर तरक्की चाहते हैं तो सबसे पहले इस जी के जंजाल से पीछा छुड़ाएं। नेताजी अब मनहूसियत के ‘पंजे’ से निकल ‘बगिया’ का रुख कर रहे हैं। जो नेता रह गये, उन्होंने हाईकमान में सुधार की पेशकश कर बड़ी आफत मोल ले ली थी। जौन एलिया का एक शेर इन्हीं अभागों के लिए एक सटीक माफीनामा बन सकता है कि, ‘शब जो हमसे हुआ मुआफ़ करो, नहीं पी होगी बहक गये होंगे’। इसी के साथ ‘आया राम, गया राम’ की भी अगली वेव आने वाली है। विपक्ष की दशा अब उस डूबते आदमी के समान हो गयी है जिसे सहारे के नाम पर भी नुकीली फांस से पटा रस्सा ही नसीब है। गोयाकि कुछ हाथ केक काट-काट छिले तो कुछ बवाल काटकर। और जिनके हाथ कुछ भी नसीब न हो पाया, वो ननिहालों का कूच कर चुके हैं। (क्योंकि किसानों के लिए बॉर्डर को कूच करना वो राजनैतिक मजबूरी है जो नए साल के सेलिब्रेशन के बहाने सुविधापूर्वक टाली जा सकती है)।

प्राइवेट और पब्लिक लाइफ अलग-अलग रखने में यकीन रखने वाले विपक्ष को प्रधानसेवक जी से अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है, मसलन एक निजी छाया छित्रकार की अहमियत जो उनकी बूढ़ी माँ से हर भेंट की तस्वीर विभिन्न ऐंगलों से ले और भोजन कक्ष के निजी और सामान्य क्रमों को नेशनल टीवी पर चला दे। परन्तु अगर माल बेचना है, तो फैक्ट्री भी डालनी पड़ेगी। और फिर ख़बरों का व्यापार सबसे ज़्यादा मुनाफा बनाता है (शक है? भारतीय अर्थव्यवस्था से पूछ लीजिये)।  तो हो कुछ यूं कि जिसकी जेब गरम हो वो अपना ही न्यूज़ चैनल भी डाल ले। उसमें सबसे ऊँचे सुर और सबसे तेज़ जबान के भोंपू, माफ़ कीजिएगा, न्यूज़ एन्करों की भर्ती कर ले। और कान के साथ-साथ आँख का भी बराबर नाश सुनिश्चित करने के लिए उन्हीं एन्करों से बीच-बीच में दो-दो हाथ करवा ले। गज़ब तो ये है कि घोंघे का खोल ओढ़ा विपक्ष इनमें से एक भी तरकीब नहीं घसीट पाता लेकिन फिर भी हर असंतुष्ट वर्ग को गुमराह करने का क्रेडिट ले ही लेता है। देखा जाए तो इस साल के अंत होते विपक्ष को सरकार को अपनी अकुशलता पर इतनी कुशलतापूर्वक पर्दा डालने के लिए एक धन्यवाद कार्ड तो भेज ही देना चाहिए।

खैर हमारी इतनी बड़बड़ का निचोड़ ये है कि सिर्फ साल का अंत राजनीतिक उठापठक और आवाम के संघर्षों का अंत कतई नहीं है क्योंकि वो जानती है – हिन्दोस्तां गिरगिटों की मुक्तलिफ़ नस्लों से संपन्न देश है।

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Marisha Singh

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