आज मैं एक चौराहे से गुजर रहा था, वहाँ पास में देखा तो चौराहे के एक तरफ पान – बीड़ी की दुकान के पास एक इंसान उल्टा पड़ा हुआ था। मैंने देखा तो सोचा उठा कर देखूं तो की क्या है?उठाकर देखा तो उसपर लिखा था फलाना फलाना संगठन, मैं समझ गया कि यहां थोड़ी देर पहले कुछ तख्तियां इक्कठी हुई होंगी जो इस इंसान को यहां छोड़ गई। मैंने सोचा क्यों ना इस इंसान को तख्तियों के पास वापस दे दिया जाए, मैंने फिर से वो इंसान पलट कर देखा और उस पर संगठन का नाम पढ़ना चाहा, मगर कुछ स्पष्ट नहीं दिखा क्योंकि ये जो फलाना फलाना लिखा था उस पर कोई जानवर अपने जूतों के निशान छोड़ गया था, अब ये उसने जानबूझकर किया हो या अनजाने में ये तो वो जानवर ही जानता है। फिर मैंने वहां आसपास टहल रहे कुछ और जानवरों से पूछा कि यहाँ कोई तख्तियां आयी थीं क्या ? उन्होंने ये सवाल सुनकर ऐसे मुँह फेरा जैसे नेता चुनाव के बाद फेर लेता है। मैं समझ गया कि इन जानवरों की ज़ुबान वोटिंग की स्याही लगाते वक्त ही काट दी गयी है।
मैंने सोचा कि ये इंसान मुझे पान-बीड़ी की दुकान के पास मिला था तो उसी से पूछता हूँ कि ये किसका है? मैं उसके पास गया तो उसने बताया कि हाँ कुछ तख्तियां आयी थीं! यहाँ चिल्ला रही थीं नारेबाजी भी हई, ये सुनकर मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने पूछा फिर क्या हुआ ? वो बोला कि फिर क्या , वो देख रहे हो आप बीच चौराहे पर गीदड़ जिन्होंने शेर की वर्दी पहन रखी है, वो आये और उन्होंने सभी तख्तियों को भगा भगा कर मारा, तो शायद उसी भागम-भाग में ये इंसान यहाँ छूट गया हो। मैंने चिंता भरी सांस ली क्योंकि मेरे लिए इतनी जानकारी काफी नहीं थी। मगर बीड़ी की दुकान वाला इतना बोल पाया तो मैं समझ गया कि वो कभी मतदान केंद्र नहीं गया। मैंने उससे एक सवाल और पूछा कि तख्तियों ने ऐसा क्या कहा कि उन्हें भगा भगा कर पीटा गया ? दुकान वाले ने चुपचाप आसपास देखा और इशारे में मेरा कान अपनी ओर लाने के लिए कहा , जैसे वो मुझे परमाणु बम का फार्मूला बताने वाला हो , मैंने उसकी तरफ कान किया तो वो बोला की यहाँ के हाकिम को ये सब पसन्द नहीं है, अगर इस इंसान पर हाकिम जिंदाबाद लिख कर कोई तख्तियां खड़ी होती तो उन्हें हाकिम से महामारी के दौर में भी त्योहारों जैसी व्यवस्था दी जाती। ये सुन कर मेरे होश भी उड़े और संतुष्टि भी हुई ,मैं बोला कि चलो कम से कम तख्तियों का एक संगठन तो है जो इंसान पर अपने विचार लिख कर नगर चौराहों पर अपना विरोध प्रदर्शन कर रहा है, दुकान वाला मेरी इस बात पर मुस्कुराया और बोला कि साहब मैं यहाँ रोज नई नई तख्तियों का झुंड देखता हूँ, मगर सबके पास इंसान एक जैसे ही होते हैं। मैंने सोचा कि इससे काम नही चलेगा मुझे तख्तियों के दफ्तर जाना होगा,मैंने यही तय किया और इंसान अपने झोले में रख लिया।


मैं पहले दफ्तर में पहुंचा, तो देखा कि दीवार पर 4-5 महापुरुषों की तस्वीर लगी है ,मैं सहम सा गया और सोचा कि पक्का ये इंसान यहीं की तख्तियों का होगा क्योंकि इतनी विचारशील तख्तियां ही इतना अच्छा काम कर सकती है, जहाँ तक मुझे पता है महापुरुषों की तस्वीरें कोई यूँही नहीं लगाता, नेताओ के घरों की दीवारों पर बेशक इनके लिए जगह न हो मगर उनके दफ्तरों की दीवार पर ये जरूर देखने को मिल जाती है और ये उन दीवारों का सौभाग्य हो जाता है और नेताओं की मजबूरी, में इन्ही विचारों में मग्न था कि एक तख्ती मेरे सामने आई और बोली कि कहिये क्या काम है?
मैंने तुरंत झोले से वो इंसान निकाल कर उसकी पहचान जाननी चाही, तख्ती इंसान को देख कर तुरंत बोली कि नहीं नहीं ये हमारा इंसान नहीं है, मैंने कहा कि इंसान पर जो मुर्दाबाद लिखा है वो तो आपके विचारों से मेल खाता है, तो ये इंसान आपका कैसे नहीं है ?
तख्ती बोली कि हमारे इंसानों का रंग अलग हैं । आप किसी और तख्ती के दफ्तर जाकर पता करें !
मैं दूसरी तख्तियों के दफ्तर गया, वहां भी मुझे उन्ही विचारों में मग्न करने वाली दीवारें दिखी जो महापुरुषों की तस्वीरों से सजी हुई थी, पास ही कुर्सी पर एक तख्ती बैठी हुई थी। मैंने समय न गंवाते हुए उनसे इंसान के बारे में पूछा और यहाँ भी मुझे वही जबाब मिला कि हमारे इंसान का रंग ये नहीं है अलग है, हम भी लिखते हैं मुर्दाबाद मगर इस रंग में नहीं ।


मैं वहां से उठा तो मेरा क्रोध और आश्चर्य दोनों मेरे साथ ही खड़े हुए। क्रोध इस बात का की ये सब एक रंग का इस्तेमाल क्यों नहीं करते और आश्चर्य इस बात का कि इनकी दीवारों पर तो एक ही रंग के महापुरुष लगे हुए है फिर इनके इंसानों के रंग अलग क्यों।
मैं तीसरे दफ्तर गया, देखा कि मरम्मत का काम चल रहा है, तो मैं सोचने लगा कि ये कोई नया संगठन है तख्तियां भी नई है और नए नए संगठन भी नए नए नेताओं जैसे होते है जो सबको साथ लेकर चलने का वादा करते है, अपना कोई रंग न बनाकर सबको एक ही रंग में रंगने का सपना दिखाते है, तो मैंने यहाँ भी एक तख्ती से वही पूछा, तख्ती हंसने लगी, मैं सोच में पड़ गया कि यहां की दीवारों पर भी वही लोग थे जिन्हें पिछले दो दफ्तरों में देख चुका हूं, फिर इन तख्तियों का व्यवहार अलग क्यों ,इतने में तख्ती बोली कि हम तो यहाँ सबको साथ लेकर चलने के लिए बैठे है , लाइये हमें दीजिये वो इंसान, हम अपना लेते हैं उसे, मैं ये सुनकर धन्य हो गया , उनका उदारवादी व्यवहार देख कर मैंने तुरंत झोले से इंसान निकाल कर मेज पर रख दिया, उस तख्ती ने पहले तो उसपर वो रंग किया जो पहले दफ्तर वाली तख्तियों का था, मैं तो उनके त्याग की अनुभूति में मग्न होने लगा, फिर उन्होंने दूसरे दफ्तर वाली तख्तियों का रंग उस इंसान पर लगाया, मैं ये देख कर और अधिक आनंदित होने लगा , मैं बस ये सोचने की वाला था कि यही त्याग जो सबको जोड़ता है यदि सभी तख्तियों में हो तो क्या खूब होगा। और में ये आखिरी पंक्ति सोचने से पहले ही क्या देखता हूँ कि इन तख्ती महाशय ने उन दो रंगों के ऊपर अपना ही एक नया रंग लगा दिया, इंसान छटपटाने लगा , मैंने तुरन्त पूछा कि ये क्या कर रहे हो? तख्ती बोली कि ये अलग अलग रंग अलग अलग तख्तियों की पहचान है, हम तो इन्हें जोड़ने का सबसे कठिन काम कर रहे हैं तो हमें भी तो अपनी पहचान के लिए नया रंग लगाना होगा! मैंने अपना सर पकड़ लिया और मेज पर पड़े उस इंसान को देख कर ख़्याल किया कि जब तक इन सभी तख्तियों का रंग एक नहीं होगा, ये इंसान यूँही बेजान पड़ा रहेगा किसी चौराहे पर ।

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Aditya Sengar

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