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मोहल्ले की बात

पिछले कुछ दिनों से मोहल्ले की तबीयत नासाज़ चल रही है। जी नहीं, हम बड़े बंगले की (मन की) बात नहीं कर रहे, हम मोहल्ले की बात कर रहे- जहाँ आप और हम रहते हैं। लेकिन चिंता वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि ये बिगड़े हालात तो ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ हैं। तो हुज़ूर आप हाय-तौबा मचाकर क्या ही उखाड़ लेंगे? अब आप तो वही सुधार सकते हैं न जो आपने खुद बिगाड़ा हो। पहले मोहल्ले की हर खस्ताहाली का ठीकरा करीब साठ बरस पहले स्वर्गवासी हो चुके चाचा के सिर फोड़ दिया जाता था। अब जब खस्ताहाली बढ़ने लगी तो एक और सिर की ज़रूरत आन पड़ी। अब कौनसा चाचा या भगवान सफाई देने आएंगे।

पूरे मोहल्ले की बस एक ही शान है- हमाए बड़े साब। ऐसा मोहल्ले के बगुलों का कहना है। और उनके कहने में हामी न भरने पर गालियाँ और गोलियाँ- कुछ भी पढ़ सकती हैं। हमारी मानें तो भले ही गोलियाँ खा लें पर गालियों से खोपड़ी बचाकर रहें। कोई भी भला मानुष ‘लिबरल’ और ‘सेक्युलर’ जैसे अपशब्द नहीं सुनना चाहेगा।
बड़े बंगले के बाहर ठुकी-पिटी गाड़ियां खड़ी हैं। बड़े साब ने उतावलेपन में गाड़ी ले तो ली पर चलानी किसी को नहीं आती, सो ठोके जा रहे हैं। खैर ये गाड़ियाँ बड़े साब के बंगले की शान हैं (उतनी ही जितने बड़े साब मोहल्ले की)।
बड़े बंगले से कुछ दूरी पर ही अपने ज़माने की मशहूर अदाकारा रहीं अर्थव्यवस्था का जर्जर बंगला है, जिसे देखकर लगता है मानो अभी भरभराकर ढह जाएगा (शायद इसलिए ही वहां से कोई भूल कर भी नहीं गुज़रता)। कल तक  अंदर किसी अँधेरे कमरे में अर्थव्यवस्था अपने सुनहरे अतीत को याद कर न्यूज़ चैनलों में अपने सन्दर्भों को तलाशती थी। पर अब फंदा कसता जा रहा और वो दम तोड़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था की चीखें रिया के फ्लैट के बाहर के शोर में डूब गयी हैं। कल अगर/जब उसकी लाश निकाली जाएगी तो मोहल्ले वाले देखेंगे एक टी.वी. सेट को बरामद होते हुए- जिसपर पूरी रात न्यूज़ चली है। तब तक सब इंतज़ार करेंगे- (खबरें मुर्दों पर बनती हैं, ज़िंदा साँसों पर नहीं। आज की खबर बनना चाहते हैं तो आपको मरना पड़ेगा।)
पिछले दिनों हमाए बड़े साब ने मोहल्ले में चन्दा करके एक शानदार मंदिर बनवा दिया। साजो-सज्जा ऐसी कि देखकर आँखें चौंधिया जाएं- सो कुछ दिन तो बड़ा हर्षोल्लास रहा। ऐसा लगा मानो पूरे मोहल्ले में बड़े साब ने जान फूंक दी हो। अरे उस दिन के नज़ारे क्या बताएं हुज़ूर, उस दिन तो बेरोजगार, भूखे और बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का जुगाड़ करते श्यामू ने भी घी के दिये जलाए थे। अब आप इसे मोहल्ले वालों की मासूमियत कहें या बौड़मपन- जो भी है, कमाल है। बगुला भगत अपने प्रभु की प्रशंसा में भूखे पेट भी ऐसे ऊँचे सुर तानता है कि इतना ऊँचा तो वे खुद भी नहीं फेंकते होंगे।
मोहल्ले में एक इज्जतदार सरपंच भी थे- ‘थे’ इसलिए क्योंकि अब नहीं रहे – इज्जतदार। न्यायमूर्ति अपने हाथों से ही न्याय की मूर्ति को खंडित कर देता है। और खंडित मूर्ती के तराजू को चाय का प्याला बनाकर सरपंच और बड़े साब शाम को बंगले के अहाते में चुस्की लेते हैं और मोर को दाना डालते हैं। उस मूर्ति की कीमत बस एक रुपया ही थी।
मोहल्ले के पड़ोसी मोहल्लों से भी व्यवहार सही नहीं चल रहे हैं। ताज्जुब की बात है, ये भी तब जब बड़े साब ने दौरे के लिए एक भी मोहल्ला नहीं छोड़ा। बहुत दम लगाई हमाए बड़े साब ने मोहल्ले की छवि सुधारने के लिए। एक पड़ोसी मोहल्ले के नेता की तो ऐसी आवभगत हुई जैसी मोहल्ले ने कभी नहीं देखी। अब वो बिना न्यौते के ही धक्कामुक्की कर घुस आते हैं। खैर इसमें बड़े साब का कोई दोष नहीं। यह सब किया धरा चाचा जी का ही है। आज भी उनकी अय्याशी के किस्से बहुत मशहूर हैं।
तो मित्रों, अभी के लिए मोहल्ले की बात इतनी ही (अब झूठ क्या बोलें, लिबरल कहलाए जाने से हमें भी डर लगता है)। जब हालात और बिगड़ जाएंगे -( जो आपको नहीं पता चलेगा अगर आप टी.वी. देखते हैं) – तो हम फिरसे अपने मोहल्ले की बात करेंगे।

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