शहर के एक नामी-गिरामी लेखक को एक बात काफी समय से टोंच रही थी। एक दिन लेखकों की सभा बुलाकर बोले -“नेता लेखकों के काम-धंधे पर कुंडली मारके बैठे हैं।”

एक सज्जन माहौल की गंभीरता को भांपने में नाकाम होते हुए ठिठोलीबाजी का दुस्साहस कर बैठे-“तो आपने जनाब उन्हें आस्तीन से निकलने ही क्यों दिया?”

अब महाराज जिस प्रकार ‘आग लगाने वालों’ को कपड़ों से पहचाना जा सकता है, उसी प्रकार आँखों में तैरती कुटिल मुस्कान असंवेदनशीलता का लक्षण होती है। लेकिन दोनों ही सूरत में ठप्पा लगाने के लिए आपकी कुर्सी की गद्दी सबसे ऊंची होनी ज़रूरी है।

अगर पिछले कुछ सालों के ट्रेंड पर नज़र डालें तो पाएंगे कि ‘संवेदनशीलता’ भारतीय राजनीति यानि Indian Politics का (नया) आलू है। नेता किसी भी मुद्दे की तरकारी में इसे काटकर डाल देते हैं। वैसे नेताओं का संवेदनशीलता से कुछ लेना-देना भी है? इस दोहरी बात को हास्यापद कहा जा सकता था, पर यह कहना भी बहुत असंवेदनशील ही होगा।

अब इससे पहले कि लेखक महोदय के हाथों उन सज्जन के सिर ‘घोर असंवेदनशीलता’ का मामला बनता, उनके मित्र तपाक से पूछ बैठे “पर नेता कब से बौद्धिक गतिविधियों में हमारी होड़ करने लगे?” यह सवाल लेखक महोदय के आवेश से लबालब हृदय रुपी गुब्बारे को सुई चुभोने का काम कर गया।

“आप पूछते हैं, कब से? अरे तभी से जब से भीड़ साहित्य गोष्ठियों और सभाओं को छोड़कर नेताओं के भाषणों पर ताली पीटने लगी है। लिखने वाला ऐसे चौचक भाषण लिखता है कि कल के ‘साहित्य-प्रेमी’ भैराने से पहुँच जाते हैं चटखारे लेने। कहिए, कौन है वो छप्पन इंच की छाती वाला जो ठोक कर दावा कर सके कि वो ऐसे झन्नाटेदार जुमलों और तुकबंदी की बराबरी कर सकता है?”

सन्नाटा। तभी कोई फुसफुसाया-“उन्होंने तो हमें वाक्-कला में भी पंछीट दिया है।”

लेखक महोदय ने कंडम होते साहित्य भवन के हॉल पर एक सरसरी नज़र दौड़ाते हुए एक ठंडी सांस छोड़ी। वातावरण में ठंडई की परत जमने लगी। वो ऐसा है ना की नेताओं से मात तो वो चन्दा बटोरने में भी खा गए थे। पर इस बारे में किसी ने चूं न करना ही बेहतर समझा। सो जो है सो है।

उस दिन मंडली देर शाम तक बैठी और घनघोर विचार-विमर्श हुआ। लेखक महोदय के बात छेड़ने पर अब सब छोटे-बड़े लेखकों को अपना भविष्य भी नेता रुपी राहु का ग्रास बनता दिखने लगा। चार की दो या सौ की एक जो भी हो बात बस यही है कि शाम गहराते तक अकल के घोड़े एक खास नतीजे पर पहुंचे, और न केवल पहुंचे बल्कि एक रिज़ॉल्यूशन भी पास कर दिया गया।

घर लौटते लेखकों के चेहरे पर इस बार एक विजयी मुस्कान थी, शायद कुछ-कुछ वैसी ही जैसी तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच से उतरते मोहल्ले के नेता के चेहरे पर तैरती होती है, हालांकि कुटिल मुस्कानों को चिन्हित करने लायक ऊंची गद्दी तो अब हमारी है नहीं फिर भी इतना समझ लीजिए कि लेखकों और साहित्य का भविष्य अब उज्ज्वल है।

लेखकों ने राजनैतिक पार्टियों के आई.टी. सेल में भर्ती हेतु आवेदन जमा करा दिया है।

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मारिषा सिंह

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